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________________ सूयगडो १ ४४७ अध्ययन १० : टिप्पण ६१ इस प्रकार विश्व में अनेक दृष्टियां प्रचलित हैं।' ६१. (जातस्स बालस्स.....) इन दो चरणों का अर्थ है-नवोत्पन्न शिशु का शरीर जैसे बढ़ता है वैसे ही असंयमी मनुष्य का वैर बढ़ता है। यह अर्थ चूणि द्वारा सम्मत है। वृत्तिकार का अर्थ इससे सर्वथा भिन्न है । वह इस प्रकार है-तत्काल उत्पन्न बच्चे के देह के टुकड़े-टुकड़े कर (अपने लिए सुख उत्पन्न करते हैं।) इस प्रकार परोपघात करने वाले उन असंयमी व्यक्तियों का (जन्म-जन्मान्तर तक चलने वाला) वैर बढ़ता है। वृत्तिकार का यह अर्थ संगत नहीं लगता । चौथे चरण में वैर के बढ़ने का कथन है और तीसरे चरण में उपमा से उस वृद्धि को समझाया है। बच्चे को मारने की बात यहां प्रसंगोपात्त नहीं है। यहां वर का अर्थ कर्म है । वैर से उत्पन्न होता है उसे भी वैर ही कहा जाता है। जैसे वैर वैरियों के लिए दुःखदायी होता है वैसे ही कर्म भी दुःखदायी होता है । जैसे बच्चे का शरीर जन्म काल से निरन्तर वढ़ता है, वैसे ही अविरत मनुष्य के निरंतर कर्म वृद्धि होती है । अविरत मनुष्य यद्यपि आकाश में निश्चल खड़ा हो जाता है, फिर भी उसके कर्म का बंध होता रहता है।' यह अर्थ-भेद 'पकुव्व' शब्द के कारण हुआ हो ऐसा लगता है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विशेषरूप से बढ़ाता हुआ, समय के साथ-साथ बढ़ाता हुआ, (प्रकर्षण कुर्वन्-अनुसामयिकी वृद्धि) किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-खंड-खंड करके (खण्डशः कृत्वा) किया है । यह अर्थ 'पकिच्च' शब्द का हो सकता है, किन्तु यह शब्द यहां प्रयुक्त नहीं है । अतः चूर्णिकार द्वारा सम्मत अर्थ ही उपयुक्त लगता है। गर्भ में उत्पन्न होते ही बालक की वृद्धि प्रारंभ हो जाती है । जब वह गर्भ से बाहर आता है, वहां से प्रारम्भ कर जब तक वह पूर्ण प्रमाणोपेत नहीं हो जाता तब तक बढ़ता जाता है। शरीर वृद्धि के चार कारण हैं १. काल । २. क्षेत्र । ३. बाह्य उपकरण-भोजन, रसायन-सेवन आदि । ४. आत्म-सान्निध्य-आन्तरिक योग्यता। यह चूणिकार का अभिमत है ।' १.णि, पृ०१९०: पुढोवाद उपादीत इति उपादाः पहा इत्यर्थः अथा उपादा दृष्टिः । तद्यथा--केषाञ्चिदात्माऽस्ति केषाञ्चिन्ना स्ति, एवं सर्वगतः नित्यः अनित्यः कर्ता अकर्ता मूर्तः अमूर्तः क्रियावान् निष्क्रियो वा, तथा केचित् सुखेन धर्ममिच्छन्ति केचिद दुःखेन, केचित् शौचेन केचिदन्यथा, केचिदारम्भेण, केचिन्निश्रेयसमिच्छन्ति, केचिदभ्युदयमिच्छन्ति । एकस्मिन्नपि तावच्छास्तरि अन्येऽन्यथा प्रज्ञापयन्ति, तद्यथा-शून्यता, अस्थि पोग्गले, णो भणामि णत्थि त्ति पोग्गले, जं पि भणामि तं पि मणामीत्यवचनीयम्, अवचनीयं एव अवचनीयः, स्कन्धमात्रमिति । वैशेषिकाणामपि-अन्येषां न (?) द्रव्याणि नवव, अन्येषां दश दशैव। सांख्यानामपि--अन्येषां इन्द्रियाणि सर्वगतानि। २. चूणि, पृ० १६० : यथा तस्य (बालस्य) अनुसामयिकी शरीरवृद्धिः। ३. वृत्ति, पत्र १९५ : 'जातस्य'-उत्पन्नस्य, 'बालस्य'- अज्ञस्य, सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो 'देह'- शरीरं 'पकुव्व' त्ति खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति, तदेवं परोपघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृतस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रक्रर्षेण वर्धते । ४. चूणि, पृ० १६० : वरं प्रवर्द्धते कर्म, वैराज्जातं वैरम्, यथा वैरं दुःखोत्पादक वैरिणां एवं कर्मापि । यद्यप्याकाशे निश्चल उपतिष्ठते ऽविरतस्तथाऽप्यस्य कर्म बध्यत एव । ५. चूणि, पृ० १३० : निषेकात् प्रभृतिरारभ्य शरीरवृद्धिर्भवति, यावद् गर्भान्निःसृतः, आबाल्याच्च प्रवर्द्धते यावत् प्रमाणस्थो जातः । शरीरवृद्धिरिह कालक्षेत्र-बाझोपकरणात्मसान्निध्यायत्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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