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________________ सूयगडो १ १४३ ०३: उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ६७-७५ मा एतं अपमन्यमानाः, अल्पेन लुम्पथ बहुम् । एतस्य अमोक्षे, अयोहारी इव खिद्यध्वे ॥ ६७. इस अप-सिद्धांत को मानते हुते आप थोड़े के लिये बहुत को न गवाएं। इस अप-सिद्धान्त को न छोड़ने के कारण कहीं आप लोहवणिक् की भांति" खेद को प्राप्त न हों।" प्राणातिपाते वर्तमानाः, मषावादे असंयता: । अदत्तादाने वर्तमानाः, मैथने च परिग्रहे । ६८. [इस अप-सिद्धान्त के कारण ही आप] हिंसा करते हैं, मृषावाद के प्रति संयत नहीं हैं, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में भी प्रवृत्त हैं । ६७. मा एयं अवमण्णंता अप्पेणं लुपहा बहुं। एयस्स अमोक्खाए अयोहारि व्व जूरहा ॥७॥ ६८. पाणाइवाए वढ्ता मुसावाए असंजया। अदिण्णादाणे वटुंता मेहुणे य परिग्गहे ।। ६६. एवमेगे उ पासत्था पण्णवेंति अणारिया। इत्थीवसं गया बाला जिणसासणपरंमुहा । ७०. जहा गंडं पिलागं वा परिपीलेत्ता मुहत्तगं । एवं विण्णवणित्थीसु दोसो तत्थ को सिया?॥१०॥ ६६. कुछ अनार्य, स्त्री के वशवर्ती, अज्ञानी और जिन शासन के पराङ्मुख पार्श्वस्थ' इस प्रकार कहते एवमेके तु पावस्थाः , प्रज्ञापयन्ति अनार्याः । स्त्रीवशं गताः बालाः, जिनशासनपराङ मुखाः ॥ यथा गण्डं पिटकं वा, परिपीड्य मुहूर्त्तकम् । एवं विज्ञापना स्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ?॥ ७०. जैसे कोई गांठ या फोड़े को दबाकर कुछ समय के लिये (मवाद को निकाल देता है) वैसे ही स्त्री के साथ भोग कर" (कोई वीर्य का विसर्जन करता है) उसमें दोष कैसा? ७१.जहा मंधादए णाम थिमियं पियति दगं । एवं विण्णवणित्थीसु दोसो तत्थ को सिया?॥११॥ यथा 'मन्धादकः' नाम, स्तिमितं पिबति दकम् । एवं विज्ञापना स्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ?॥ ७१. जैसे मेंढा जल को गुदला किये बिना धीमे से उसे पी लेता है, वैसे ही (चित्त को कलुषित किये बिना) स्त्री के साथ कोई भोग करता है, उसमें दोष कैसा? ७२. जहा विहंगमा पिंगा थिमियं पियति दगं । एवं विण्णवणित्थीसु दोसो तत्थ को सिया? ॥१२॥ यथा विहंगमा पिंगा, तिमितं पिबति दकम् । एवं विज्ञापना स्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ? ॥ ७२. जैसे पिंग'०५ नामक पक्षिणी आकाश में तैरती हुई (जल को क्षुब्ध किये बिना) धीमे से चोंच से जल पी लेती है, वैसे ही (राग से अलिप्त रह कर) स्त्री के साथ कोई भोग करता है, उसमें दोष कैसा ? ७३. एवमेगे उ पासत्था मिच्छादिट्ठी अणारिया। अज्झोववण्णा काहि पूयणा इव तरुणए ।१३। एवमेके तु पाश्वस्थाः , मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । अध्युपपन्नाः कामेषु, पूतना इव तरुणके ॥ ७३. इस प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि, अनार्य, पार्श्वस्थ काम भोगों में वैसे ही आसक्त होते हैं जैसे भेड़ अपने बच्चे में। ७४. अणागयमपस्संता पच्चुप्पण्णगवेसगा । ते पच्छा परितप्पंति झीणे आउम्मि जोवणे।१४। अनागतं अपश्यन्तः, प्रत्युत्पन्नगवेषकाः ते पश्चात् परितप्यन्ते, क्षीणे आयुषि यौवने ॥ ७४. भविष्य में होने वाले दुःख को दृष्टि से ओझल कर वर्तमान सुख को खोजने वाले वे आयुष्य और यौवन के क्षीण होने पर परिताप करते हैं । ७५. जेहि काले परक्कंतं ण पच्छा परितप्पए। ते धीरा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवियं ॥१५॥ यः काले पराक्रान्तं, न पश्चात् परितप्यते । ते धीराः बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षति जीवितम् ॥ ७५. जिन्होंने ठीक समय पर पराक्रम किया है वे बाद में परिताप नहीं करते। वे धीर पुरुष (कामासक्ति के) बंधन से मुक्त होकर (काम-भोगमय) जीवन की आकांक्षा नहीं करते । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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