________________
(१०१२१)
और पाडा
सूयगडो १
६५५ परिशिष्ट ३ : सूक्त और सुभाषित हिंसप्पसूताणि बुहाणि मत्ता,
करे और न (असंयत) मृत्यु की वांछा करे (वह संयत जीवन वेराणुबंधीणि महन्मयाणि ।
और पंडित मरण की वांछा करे।) दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं। वे वैर की परम्परा को आयाणगत्ते बलया विमुक्के ।
(१२।२२) बढ़ाते हैं। वे महा भयंकर होते हैं।
जो इन्द्रियों का संवरण करता है, वह संसारचक्र से मुक्त मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी।
(११२२) हो जाता है। आत्मगामी मनुष्य असत्य न बोले ।
एगस्स जंतो गतिरागती च ।
(१३३१८) णिव्वाणमेगं कसिणं समाहि ।
(१०।२२) जीव अकेला जाता है और अकेला आता है। सत्य है निर्वाण और समाधि ।
अणोसिते गंतकरे ति णच्चा ।
(१४।४) सम्वे अकंतदुक्सा य, अतो सम्वे अहिंसया ॥ (११।६) जो गुरुकुलवास में नहीं रहता वह असमाधि या संसार
सभी जीवों को दुःख अप्रिय है, इसलिए किसी प्राणी की का अन्त नहीं कर सकता। हिंसा मत करो।
णो तुच्छए णो य विकस्थएज्जा ।
(१४१२१) एवं खु णाणिणो सारं, जंण हिंसति कंचणं ।
व्यक्ति न अपनी तुच्छता प्रदशित करे और न अपनी अहिंसा-समयं चेव, एतावंतं विजाणिया ॥ (११०१०) प्रशंसा करे। ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा संकेज कितनावमिस ।
(१४१२२) नहीं करता । 'समता अहिंसा है'-इतना ही उसे जानना है।
किसी तत्त्व के प्रति शंकित होने पर भी व्यक्ति सत्य के संति णिव्वाणमाहिगं ।
(१११११) प्रति विनम्र होकर उसका प्रतिपादन करे। __ शांति ही निर्वाण है।
विमज्जवागं च वियागरेज्जा।
(१४॥२२) ण विरुझज्ज केणइ ।
(११३१२) प्रतिपादन में सदा विभज्यवाद-स्यावाद का प्रयोग किसी के साथ विरोध मत करो।
करे। उम्मग्गगया दुक्खं धातमेसंति तं तहा। (११।२६) ण कत्थई भास विहिसएज्जा।
(१४१२३) जो उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं, वे दुःख और मृत्यु की किसी की भाषा की हिंसा (तिरस्कार) न करे । कामना करते हैं।
णिरुद्धगं बावि ण दीहएज्जा ।
(१४॥२३) संघए साहुधम्म च, पावधम्म जिराकरे। (११३३५)
शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए। साधु-धर्म-रत्नत्रयी का संधान करो और पाप-धर्म का
अलूसए णो पच्छण्णमासी। निराकरण करो।
(११२६)
सिद्धांत को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करे। अपरिणत को जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया।
रहस्य न बताए। संती तेसि पडट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥ (११॥३६) जो बुद्ध (तीर्थंकर) हो चुके हैं और जो बुद्ध होंगे, उन
भूतेसु ण विरुज्झज्जा, एस धम्मे वसीमओ। भूतसु ण विराम
(१५.४) सबका आधार है शांति, जैसे जीवों का पृथ्वी।
जीवों के साथ विरोध न करे -यह संयमी का धर्म है। ण कम्मुणा कम्म खति बाला,
भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। अकम्मुणा कम्म खर्वेति धीरा ।
(१२।१५) णावा व तीरसंपण्णा, सम्वदुक्खा ति उट्टति ॥ (१५१५) कर्म से कर्म क्षीण नहीं किया जा सकता । अकर्म से कर्म जिनकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध है वह जल में नौका क्षीण होते हैं।
की तरह कहा गया है । वह तट पर पहुंची हुई नौका की भांति संतोसिणो णो पकरेंति पावं ।
(१२।१५) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। ___संतोषी मनुष्य पाप से बच जाता है।
तुट्टति पावकम्माणि, गवं कम्ममकुव्वओ॥ (१५६) विण्णत्ति-वीरा य भवंति एगे।
(१२०१७) जो नए कर्म नहीं करता उसके पापकर्म टूट जाते हैं । कुछ पुरुष केवल वाग्वीर होते हैं, कर्मवीर नहीं। अकुम्वओ ण णस्थि, कम्मं णाम विजाणतो। (१५७) णो जीवियं णो मरणाभिकखे ।
(१२।२२) जो नए कर्म नहीं करता, विज्ञाता या द्रष्टा है, उसके मेधावी व्यक्ति न (असंयममय) जीवन की आकांक्षा नया कर्म नहीं होता।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org