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________________ सूयगडो १ ५६ राजस्थानी में डंक को 'डींकड़ा' (बड़ा काम) कहते हैं। पिशेल ने 'ढंक' का संस्कृत रूप 'ध्वांक्ष' किया है । महाराष्ट्री में इसे 'ढंख' कहा जाता है ।" प्रश्नव्याकरण में अनेक पक्षियों के नाम आए हैं कंक शब्द के दस अर्थ हैं। उनमें चार अर्थ कंकस्तरंगे गुप्ते च गृधे कुले मधुरिपो कोके, पिके हिन्दी शब्दसागर में कंक के तीन अर्थ किए हैं १. मांसाहारी पक्षी जिसके पंख बागों में लगाए जाते हैं। २. सफेद चील -- इसका पृष्ठभाग बहुत मजबूत और लोहवर्ण का होता है । ३. बगुला, बतख । उनमें एक पक्षी का नाम है 'ढिक' ।' यह भी 'ढंक' का ही वाचक है । काक, कोक (चक्रवाक) और पिक (कोयल) ये पक्षीवाची हैं। काके युधिष्ठिरे । वैकस्वतेऽप्यथ ॥ १२१. मृत्यु को प्राप्त होते हैं (घात में ति) समुद्र के विशालकाय मत्स्य ज्वार-भाटे के पानी के साथ बहकर चर पर आ जाते हैं। जाता है । मत्स्य विशालकाय होने के कारण उस थोड़े से पानी में तैर नहीं सकते और मुड़ते समय चूर्णिकार ने 'घंत' पाठ मान कर इसके दो अर्थ किए हैं- १. घात से होने वाला अंत । २. मृत्यु ।' वृत्तिकार ने 'घात' का अर्थ विनाश किया है । ' अध्ययन १ टिप्पण १२१-१२३ : श्लोक ६३ : १२२. वर्तमान सुख की एषणा करने वाले कुछ अमण (समणा एगे वट्टमानतुहेतिणो ) चूर्णिकार ने अन्यतीर्थिक और पार्श्वस्थ (स्वतीर्थिक शिथिलाचारी मुनि) को श्रमण माना है। वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा शाक्य, पाशुपत, और जैन मुनियों का सूचन किया है।" Jain Education International वर्तमान सुख की एषणा करने वाले व्यक्ति परिणाम पर ध्यान नहीं देते। वे केवल वर्तमान क्षण का ही विचार करते हैं । प्रस्तुत श्लोक में उन मुनियों को वर्तमान सुख की एपणा करने वाला माना है जो आधाकर्म आदि अशुद्ध आहार की प्राप्ति में ही सुख का अनुभव करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि आधाकर्म के उपभोग से क्या-क्या कटु परिणाम उन्हें भोगने होंगे ।' १२३. अनंत बार......प्राप्त होते हैं (एसंतणं तसो ) यहां दो शब्द हैं- एष्यन्ति और अनन्तशः । १. पिशल, पेरा २१५ पृ० ३३३ । २. पवारमा १० ३. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी 'कंङ्कः', पृ० ५१६ । ४. चूर्णि पृ० ४० : स च महाकायत्वान्न तत्र शक्नोति तर्तुम्, परिवर्तमानो वा नदीमुखे लग्यते । ५. चूर्ण, पृ० ४० ॥ ६. वृत्ति, पत्र ४२ । ७ चूर्णि, पृ० ४० : अण्णउत्थिया पासत्यादयो वा । ८. वृत्ति, पत्र ४२ : श्रमणाः ६. वृत्ति, पत्र ४२ : वर्तमानसुखेषिणः 'शाक्यपाशुपतादयः स्वयूथ्या वा । पानी का प्रवाह वेग से लौट वहीं फंस जाते हैं। For Private & Personal Use Only "तत्काला वाप्त सुख ल वास तचेतसोऽनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवाः । www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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