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________________ ६० सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १२४-१२६ मत्स्य केवल उसी भव में मारे जाते हैं, किन्तु जो श्रमण वर्तमान सुखैषी होते हैं वे अनन्त जन्म-मरण करते हैं।' वृत्तिकार ने 'एष्यन्ति' का अर्थ 'अनुभव करेंगे'—किया है। इसका धात्वर्थ है-प्राप्त होंगे। श्लोक ६४ : १२४. देव द्वारा उप्त है (देवउत्ते) जैसे कृषक बीजों का वपन कर फसल उगाता है वैसे ही देवताओं ने बीज वपन कर इस संसार का सर्जन किया है। 'उत्त' शब्द के संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं-उप्त, गुप्त और पुत्र । इनके आधार पर 'देवउत्त' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं १. देवउत्त-देव द्वारा बीज वपन किया हुआ । २. देवगुप्त–देव द्वारा पालित । ३. देवपुत्र-देव द्वारा उत्पादित । १२५. ब्रह्मा द्वारा उप्त है (बंभउत्ते) इसका अर्थ है-ब्रह्मा द्वारा बीज-वपन किया हुआ। कुछ प्रावादुक मानते हैं कि ब्रह्मा जगत् का पितामह है। जगत् सृष्टि के आदि में वह अकेला था। उसने प्रजापतियों की सृष्टि की। उन्होंने फिर क्रमशः समस्त संसार को बनाया।' इनके भी तीन अर्थ होते हैं१. ब्रह्मउप्त-ब्रह्मा द्वारा बीज-वपन किया हुआ । २. ब्रह्मगुप्त-ब्रह्मा द्वारा पालित । ३. ब्रह्मपुत्र-ब्रह्मा द्वारा उत्पादित । श्लोक ६५: १२६. कुछ कहते हैं-यह (लोक) प्रधान-प्रकृति द्वारा कृत है (पहाणाइ पहावए) प्रधान का अर्थ है-सांख्य सम्मत प्रकृति । इसका अपर नाम अव्यक्त भी है । सत्त्व, रजस् और तमस्-इन तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है । वह पुरुष (आत्मा) के प्रति प्रवृत्त होती है। ___इस शब्द में प्रयुक्त आदि शब्द से वृत्तिकार ने प्रकृति से सृष्टि के सर्जन का क्रम उल्लिखित किया है-प्रकृति से महान (बुद्धि), महान् से अहंकार, अहंकार से षोडशक गण (पांच बुद्धीन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच तन्मात्र और मन), फिर पांच तन्मात्र से पांच भूतों की सृष्टि होती है । अथवा आदि शब्द से स्वभाव आदि का ग्रहण किया है। कुछ प्रावदुक कहते हैं-जैसे कांटों की तीक्ष्णता स्वभाव से ही होती है, वैसे ही यह लोक भी स्वभाव से ही बना है। १. चूणि, पृष्ठ ४० : मच्छा एगभवियं मरणं पावेंति एवमणेगाणि जाइतब्वमरितव्वाणि पावंति । २. वृत्ति, पत्र ४२ : एष्यन्ति अनुभविष्यन्ति । ३. (क) चणि, पृष्ठ ४१ : देवउत्ते..... .. देवेहि अयं लोगो कतो, उत्त इति बीजवद् वपितः आविसर्गे.... 'देवगुत्तो देवैः पालित इत्यर्थः । देवपुत्तो वा देवर्जनित इत्यर्थः । (ख) वृत्ति, ४३ : देवेनोप्तो देवोप्त , कर्षकेणेव बीजवपनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः देवैर्वा गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देव पुत्रो वा। ४. वही, पत्र ४३ : तथाहि तेषामयमभ्युपगमः-ब्रह्मा जगत्पितामहः, स चैक एव जगदादावासीत्तेन च प्रजापतयः सृष्टाः तश्च क्रमेणतत्सकलं जगदिति । ५.णि, पृष्ठ ४१ : एवं बंभउत्ते वि तिणि विकप्पा भाणितब्वा-बंभउत्तः बंभगुत्तः बंभपुत्त इति वा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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