SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८१ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण १२६ कुछ प्रावादुक कहते हैं- मयूर की पांखों की तरह यह लोक भी नियति द्वारा कृत है।' 'पहाणाइ'- इस शब्द में 'कडे' शब्द शेष रहता है । 'पहाणाइ कडे'-ऐसा होना चाहिए। इस विशाल जगत् का मूल कारण क्या है, इस विषय में सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से चिन्तन प्रस्तुत किया है। सांख्य दर्शन के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं-चेतन और अचेतन । ये दोनों अनादि और सर्वथा स्वतंत्र हैं। चेतन अचेतन का अथवा अचेतन चेतन का कार्य या कारण नहीं हो सकता। इस दृष्टि से सांख्य दर्शन सृष्टिवादी नहीं है। वह सत्कार्यवादी है। अचेतन जगत का विस्तार 'प्रधान' से होता है, इस अपेक्षा से सूत्रकार ने सांख्य दर्शन को सृष्टिवाद की कोटि में परिगणित किया है। प्रधान का एक नाम प्रकृति है। वह त्रिगुणात्मिका होती है। सत्व, रजस् और तमस्-ये तीन गुण हैं । इनकी दो अवस्थाएं होती हैं- साम्य और वैषम्य । साम्यावस्था में केवल गुण ही रहते हैं। यही प्रलयावस्था है। वैषम्यावस्था में वे तीनों गुण विभिन्न अनुपातों में परस्पर मिश्रित होकर सृष्टि के रूप में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार अचेतन जगत् का मुख्य कारण यह 'प्रधान' या 'प्रकृति' ही है। प्रकृति की विकाररहित अवस्था मूल प्रकृति है। उससे महत्-बुद्धि नामक तत्त्व उत्पन्न होता है। महत् से अहंकार, अहंकार से मन, दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां) और पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) उत्पन्न होती हैं। इन पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं-शब्द तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न होता है। शब्द तन्मात्रा सहित स्पर्श तन्मात्रा से वायु उत्पन्न होता है। शब्द और स्पर्श तन्मात्राओं से युक्त रूप तन्मात्रा से तेज उत्पन्न होता है। शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से युक्त रस तन्मात्रा से जल उत्पन्न होता है। शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्राओं से युक्त गन्ध तन्मात्रा से पृथ्वी उत्पन्न होती है। इन चौबीस तत्त्वों में प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं होती। वह अनादि है। उसका कोई मूल नहीं है । इसलिए उसे मूल कहा जाता है' मूल प्रकृत्ति अविकृति होती है। महत् अहंकार और पांच तन्मात्राएं- ये सात तत्त्व प्रकृति और विकृति दोनों में होते हैं । इनसे अन्य तत्त्व उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये प्रकृति हैं और ये किसी न किसी अन्य तत्त्व से उत्पन्न होते हैं, इसलिए विकृति भी हैं। सोलह तत्त्व (दस इन्द्रियां, पांच महाभूत और मन) केवल विकृति हैं। पुरुष किसी को उत्पन्न नहीं करता इसलिए वह प्रकृति नहीं है और वह किसी से उत्पन्न नहीं होता, इसलिए वह विकृति भी नहीं है । मूल प्रकृति पुरुष-दोनों अनादि हैं। शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार हैं । यही प्रधानकृत सांख्य-सृष्टि का स्वरूप है। सृष्टिवाद के विविध पक्षों का निरूपण वैदिक और श्रमण साहित्य में मिलता है। सूत्रकार ने सृष्टि विषयक जिन मतों का संकलन किया है उनका आधार इस साहित्य में खोजा जा सकता है। सृष्टि के संबंध में कुछ अभिमत यहां प्रस्तुत हैं १. ऋग्वेद के दसवें मंडल में सृष्टि के विषय की अनेक ऋचाएं हैं। ८१,८२ वीं ऋचा में कहा गया है कि विश्वकर्मा ने संसार की सृष्टि की। ८१वीं ऋचा में पूछा गया-सृष्टि का आधार क्या है ? सृष्टि की सामग्री क्या थी? आकाश और पृथ्वी का निर्माण कैसे हुआ? इनके उत्तर में कहा गया है----एक ईश्वर था। वह चारों ओर देखता था। उसका मुंह सभी दिशाओं में था । उसके हाथ-पैर सर्वत्र थे । आकाश-पृथ्वी के निर्माण के समय उसने उन सबका प्रयोग किया। सारी सृष्टि बन गई। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में पुरुष (आदिपुरुष) को सृष्टि का कर्ता माना है । उसके हजार सिर, हजार आंखें और हजार पैर थे । सारी सृष्टि उसकी है । उस पुरुष से 'विराज' उत्पन्न हुआ और उससे दूसरा पुरुष 'हिरण्यगर्भ' पैदा हुआ। कुछेक सूक्तों में कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ, जो स्वर्ण-अंड के रूप में था। वही प्रजापति है। १ वृत्ति, पत्र ४३। २. सांख्यकारिका, श्लोक २२ : प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ।। ३. सांख्य सूत्र १/६७ : मूले मूलाभावादमूलं मूलम् । ४. सांख्यकारिका, श्लोक ३ : मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । ___षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।। ५. गीता १३/१९ : प्रकृति पुरुषं चैव विड्यनादी उभावपि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy