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________________ अध्ययन: ठिप्पण १३-१७ सूयगडो १ कोयला बनाना आदि क्रियाओं को 'आरंभ' के अन्तर्गत माना है।' श्लोक ३: १३. जो परिग्रह में निविष्ट हैं (परिग्गहे णिविट्ठाणं) जो परिग्रह में निविष्ट हैं अर्थात् जो परिग्रह का नाना उपायों से अर्जन करते हैं, उसकी सुरक्षा करते हैं, उसका भोग करते हैं और उसके नष्ट-विनष्ट होने पर चिंता करते हैं।' वृत्तिकार ने निविष्ट का अर्थ गृद्धि, आसक्ति किया है। १४. उनका वैर बढ़ता है (वेरं तेसि पवड्ढई) यहां बैर का अर्थ पाप-कर्म भी हो सकता है। चुणिकार ने 'वेरं' के स्थान पर 'पावं' पाठ माना है।' वैर का अर्थ शत्रुता भी किया जा सकता है। परिग्रह में आसक्त मनुष्य अनेक लोगों के साथ वैर-भाव पैदा कर लेता है। नियुक्तिकार ने पाप और बैर को एकार्थक माना है।" १५. काम आरंभ (प्रवृत्ति) से पुष्ट होते हैं (आरंभसंभिया कामा) काम का अर्थ है--विषयों के प्रति आसक्ति, आरंभ का अर्थ है --प्रवृत्ति और संभृत का अर्थ है - पुष्टि । काम प्रवृत्ति से पूष्ट होते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति विषयों का का सेवन करता है, वैसे-वैसे विषयों के प्रति उसकी अनुरक्ति बढ़ती जाती है और वह अनूरक्ति प्रवृत्ति को बढाती है । वह प्रवृत्ति काम-वासना को पुष्ट करती है ।' १६. दुःख का (दुक्ख) - दुःख का अर्थ है-आठ प्रकार के कर्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, नरक आदि दुर्गति ।' श्लोक ४ : १७. मरणोपरान्त किए जाने वाले अनुष्ठान (आघातकिच्चं) आघात का अर्थ है -मरण और किच्च का अर्थ है-कृत्य अर्थात् मरणोपरान्त किया जाने वाला कृत्य । शव का अग्निसंस्कार करना, जलाञ्जलि देना, पितृपिण्ड देना आदि कार्य आपातकृत्य कहे जाते हैं । १. वृत्ति, पत्र १७७ : आरम्भ (म्भे) निश्रिता यन्त्रपीडननिर्लाञ्छनकर्माङ्गारदाहादिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपम कारिणः । (ख) वृत्ति पत्र, १७७ । २. चूणि, पृ० १७५ : परिग्गहे णिविट्ठाणं ति उवज्जिणंताणं सारवंताणं य णट्ठविणटुं च सोएन्ताणं । ३. वृत्ति, पत्र १७७ : निविष्टानाम् अध्युपपन्नानां गाद्ध यं गतानाम् । ४. चूणि, पृ० १७५। ५. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, गाथा १२२ : पावे वज्जे वेरे, पणगे पंके खुहे असाए य । संगे सल्ले अरए, निरए धुत्ते अ एगट्ठा ॥ ६. चूणि, पृ० १७५, १७६ । ७. (क) चूणि, पृ० १७६ : जरा-व्याध्युदये दुःखोदये वा मृतौ वा प्राप्ते न तस्माद् दुःखाद् मोचपन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र १७८ । दुःखयतीति दुःखम् अष्टप्रकार कर्म । ८. वृत्ति, पत्र १७८ : आहन्यन्ते अपनीयन्ते-विनाश्यन्ते प्राणिनां दश प्रकारा अपि प्राणा यस्मिन् स आधातो-मरणं तस्मै तत्र वा कृतम्-अग्निसंस्कारजलालिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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