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________________ सूयगडो १ ४६६ श्रध्ययन १२ : टिप्पण की निन्दा नहीं करनी चाहिए। सबके प्रति विनम्र होना चाहिए । विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं। देवता, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, कृपण, माता, पिता- इन आठों का मन से, वचन से, काया से और दान से विनय करना (८x४ = ३२ ) । ' विनयवादी दर्शन के कुछ प्रमुख आचार्य ये हैं- वशिष्ठ, पाराशर, वाल्मीकि, व्यास, इलापुत्र, सत्यदत्त आदि ।' चूर्णिकार ने नियुक्ति गाथा (११२) की व्याख्या में 'दाणामा' 'पाणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी बतलाया है और श्लोक की व्याख्या में आणामा, पाणामा आदि का विनयवादियों के रूप में उल्लेख किया है । * प्रस्तुत भगवती सूत्र में आणामा और पाणामा प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है । तामलिप्ति नाम की नगरी में तामली गाथापति रहता था । उसने 'पाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की । उसका स्वरूप इस प्रकार है- पाणामा प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् वह तामली जहां कहीं इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, दुर्गा, चामुण्डा आदि देवियों तथा राजा ईश्वर ( युवराज आदि), तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक ईभ्यष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौआ, कुत्ता या चांडाल को देखता तो उन्हें प्रणाम करता। उन्हें ऊंचा देखता तो ऊंचे प्रणाम करता, और नीचे देखता तो नीचे प्रणाम करता । " पूरण गाथापति ने ‘दाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसका स्वरूप इस प्रकार है- प्रव्रज्या के पश्चात् वह चार पुट वाला लकड़ी का पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में भिक्षा के लिए गया। जो भोजन पात्र के पहले पुट में गिरता उसे पथिकों को दे देता । जो भोजन दूसरे पुट में गिरता उसे कौए, कुत्तों को दे देता । जो भोजन तीसरे पुट में गिरता उसे मच्छ-कच्छों को दे देता । जो चौथे पुट में गिरता वह स्वयं खा लेता । यह दाणामा प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार है। वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भी विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है । किन्तु यह अर्थ विचारणीय है। यहां विनय का अर्थ आचार होना चाहिए । ज्ञानवादी जैसे ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि मानते थे, वैसे ही आचारवादी केवल आचार पर ही बल देते थे । उनका घोष था - 'आचारः प्रथमो धर्मः' । ज्ञानवाद और आचारवाद दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं । प्राचीन साहित्य में आचार के अर्थ में विनय का बहुलता से प्रयोग हुआ है ज्ञाताधर्मकया सूत्र में जैन धर्म को विनयमूलक धर्म बतलाया गया है । थावच्चापुत्र ने शुकदेव से कहा- मेरे धर्म का मूल विनय है।" यहां विनय शब्द मुनि के महाव्रत और गृहस्थ के अणुव्रत के अर्थ में व्यवहृत है। बौद्धों के विनयपिटक में विनय - आचार की व्यवस्था है। विनय शब्द के आधार पर विनम्रता और आचार - दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। आचार पर अधिक बल देने वाली दृष्टि का प्रतिपादन बौद्ध साहित्य में भी मिलता है । जो लोग १. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा १११, चूर्णि पृ० २०६ : वेणइयवाविणो भणति - ण कस्स वि पासंडल्स गिहत्यस्स वा जिंदा कायव्वा, सव्वस्सेव विणीयविणयेण होतव्वं । २. सूत्रकृतांग निर्मुक्ति, गाथा ११३, चूर्णि, पृ० २०७ : वैनयिकमतं १ विनयश्चेतो वाक्- काय दानतः कार्यः । gr-qafa-afa-ang-safari-sau-ang-fagg a २. दर्शनसमुच्चय श्री गुणरत्नसूरी, दीपिका, पृ० २२ वशिष्ठपराशरात्मोकिम्यासेस | पुत्रसत्यदत्तप्रभृतयः । ४ (क) सूत्रकृतांग निर्मुक्ति, गाथा ११३, चूणि, पृ० २०६ : वेणइयवादीणं बत्तीसा दाणामा-पाणामादिप्रव्रज्यादि । (ख) सूयगडो १।१२।१, चूर्णि, पृ० २०७ : वेणइया तु आणाम-पाणामादीया कुपासंडा । ५. भगवई, ३।३४ : से केणट्ठेण भंते एवं वृच्चइपाणामा पव्वज्जा ? गोयमा ! पाणामाए णं पव्वज्जाए पव्वइए समाणे जं जत्थ पासइ - इंदं वा खंदं वा रद्दं वा सिवं वा वेसमणं वा अज्जं वा कोट्टकिरियं वा रायं वा ईसरं वा तलवरं वा माबि वा कोबिगं वा इन्भं वा सेट्ठि वा सेणावई वा सत्यवाहं वा काकं वा साणं वा पाणं वा उच्चं पासह उच्चं पणामं करेइ, नीयं पासइ नोगं पणामं करेइ, ज जहा पासइ तस्स तहा पणामं करेइ । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ पाणामा पव्वज्जा । सयमेव चउegsi दारुमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता ६ भगवई ३ । १०२ : तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ दाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए । ७. वृत्ति, पत्र २१३ : इदानीं विनयो विधेयः । ८. नायाधम्मक हाओ, ११५५६ तए णं यावच्चापुत्ते Jain Education International सुदंसणं एवं वयासीभूयंसणा विषयमूलय धम्मे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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