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________________ सूयगडो १ अध्ययन ११ : टिप्पण ३६-४० लेते हैं । वे धान्य आदि के कणों को सजीव नहीं मानते । उपासक उनके लिए पचन-पाचन करते हैं । वे उनका अनुमोदन भी करते हैं। वे जीव में अजीव की और तत्त्व में अतत्त्व की बुद्धि रखते हैं। वे संघभक्त आदि की सतत कामना करते हैं। वे अतीत में किए गए संघभक्तों की तथा भविष्य में किए जाने वाले संघभक्तों की गणना करते रहते हैं । यदि उनके भी ध्यान हो तो फिर ध्यान किसके नहीं होगा? उन भिक्षुओं के विहार भित्तिचित्रों से भरपूर होते हैं। उनकी परंपरा है कि वे अपने लिए मारे हुए पशु का मांस नहीं लेते । किन्तु यदि वह मांस कोई दूसरा व्यक्ति खरीद कर दे तो वे उसे ग्रहण कर लेते हैं । उसे वे 'कल्पिक' कहते हैं। आज भी तिब्बत आदि बौद्ध देशों में 'कल्पिक' जाति के रूप में एक वर्ग है । उस वर्ग के लोग बौद्ध भिक्षुओं के लिए मांस खरीद कर उन्हें देते हैं। यह उनका मुख्य कार्य है । ऐसे हजारों स्त्री-पुरुष वहां हैं । देने वाली उन दासियों को 'कल्पकारी' कहा जाता है और मांस को कल्पिक कहते हैं। संभव है चूणिकार के समय में भारत में भी बौद्ध परंपरा में यह प्रथा रही हो। नूणिकार ने इस पर व्यंग करते हुए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। बर्बर जाति के एक व्यक्ति ने मांस का प्रत्याख्यान कर दिया। अपनी प्रतिज्ञा को पालने में असमर्थता दिखाई दी। उसने मांस का नाम 'भ्रमर' रखा और खा लिया। क्या वह उसको खाता हुआ अमांसभक्षी कहा जा सकता है ? लूता (मकड़ी) का नाम शीतलिका रख देने मात्र से क्या वह नहीं मार देती? विष का नाम 'मधुर' रख देने मात्र से क्या वह मृत्यु का कारण नहीं बनता ? इसी प्रकार बौद्ध भिक्षु संज्ञाओं का भेद कर आरंभ में प्रवृत्त होते हैं । वे प्रवृत्तियां उनके निर्वाण के लिए नहीं होतीं। वे वैराग्य की द्योतक भो नहीं होती। जो भिक्षु ऐसे विहार या लयनों (गुफाओं) में रहते हैं, जो कामोत्तेजक चित्रों से चित्रित हैं, उनके वहां ध्यान कैसे संभव हो सकता है ? जो भिक्षु मांस लेते समय कल्पिकारियों को व्यवहृत करते हैं, उनके द्वारा खरीदा हुआ मांस खाते हैं, उनके भी ध्यान कैसे हो सकता है ? जो पचन-पाचन में प्रवृत्त हैं, जो केवल अपने शरीर का ही ध्यान रखते हैं, जो प्रतिपल मनोज्ञ, पान, भोजन, विहार, वस्त्र आदि का ध्यान रखते हैं, जो सोचते रहते हैं - "आज कौन उपासक संघभक्त करेगा? आज कौन भक्त वस्त्र-दान करेगा आदि, उनके ध्यान कैसे हो सकता है ? उनके शुद्ध ध्यान हो ही नहीं सकता।' ३६. नहीं जानते (अखेतण्णा) इसका संस्कृत रूप है-अक्षेत्रज्ञाः । चूर्णिकार ने इसका अर्थ--मोक्षमार्ग और शुद्ध ध्यान को न जानने वाला किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'अनिपुण' किया है।' ४०. वे असमाहित चित्त वाले होते हैं (असमाहिया) इसका अर्थ है-असंवृत । जो मनोज्ञ पान, भोजन और आवास आदि का निरंतर चिन्तन करते हैं, जो यह खोचते हैं कि आज संघ को कौन भोजन-पान देगा? कौन वस्त्र देगा?, वे असमाहित होते हैं । वे शुद्ध ध्यान करने के अधिकारी नहीं होते।' __वृत्तिकार ने असमाहित का अर्थ समाधि से दूर (शून्य) किया है।" १. चूणि, पृ० २०१: बीयाणि सचेतणाणि शाल्यादीनाम, ७ (? शो) तमपि च उदकं सचेतनमेव, हरिद्रा-कक्कोदकवत्, तमुद्दिश्य च कृतं उपासकादिभिः, स्वयं च पाचयन्ति पक्षचारिकादयः, तेषां हि पक्षे चारिका भवन्ति, अनुजानते च सुपक्वं सुसृष्ट मिति, जीवेषु च अजीवबुद्धयः अतत्त्वे तत्त्वबुद्धयः वराकास्तत्कारिणस्तद्वेषिणश्च सङ्घभक्तानि गणयन्तोऽतीता-ऽनागतानि च प्रार्थयन्तः झाणं णाम क्रियायंति, णाम परोक्षस्तवादिषु, तेऽपि नाम यदि ध्यानं ध्यायन्ति, को हि नाम न ध्यानं ध्यास्यति । ग्राम-क्षेत्र-गहादीनां गवां प्रेष्यजनस्य च । यत्र प्रतिग्रहो दृष्टो ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? ॥ सचित्तकम्मा य तेसि आवसथा विहारकुडीउ त्ति, मांसं कल्पिक इत्यपदिश्यते, दासीओ कप्पयारीउ त्ति । यथा बबरेण मांसस्य प्रत्याख्याय अशक्नुवता तमनुपालयितुं भमरमिति संज्ञां कृत्वा भक्षितम्, किमसौ तद् भक्षयन् निविशिको भवति ?, लता वा शीतलिकाभिधानेनाभिलप्यमाना कि न मारयति ? । एवं तेषां न संज्ञान्तरपरिकल्पितास्ते आरम्भा निर्वाणाय भवन्ति, न च वैराग्यकरा भवन्ति । येऽपि तावद् भिक्षाहारा भवन्ति तेऽपि सदिकारस्त्रीरूपसचित्रकर्मसु लेनेषु वसन्ति, तेषामपि तावत् कुत्तो ध्यानम् ? किमङ्ग पुन: कल्पिकारीापारयताम् ? पचन-पाचनप्रवृत्तानां तनुमेब चानुप्रेक्षमाणानां कुतो ध्यानम् ? । २. चूर्णि, पृ० २०१ ते हि मोक्षमार्गस्य ध्यानस्य च शुद्धस्य अखेतण्णा अजाणगा। ३. वृत्ति, पत्र २०७ : अखेदज्ञाः- अनिपुणाः । ४. चूणि, पृ० २०१: असमाहिता णाम असंवृताः, मनोज्ञेषु पान-भोजनाऽच्छावनादिषु नित्याध्यवसिता: 'कोऽत्थं संघभत्तं करेज्जा ? कोऽत्थ परिक्खारं देज्ज वस्त्राणि ? इत्येवं नित्यमेवात्तं ध्यायन्ति । ५ वृत्ति, पत्र २०७ : असमाहिता मोक्षमार्गाख्याद्भावसमाधेरसंवृततया दूरेण वर्तन्त इत्यर्थः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Intemational
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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