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अध्ययन १: टिप्पण ३२-३५
सूयगडो १ 'विष्णु' जीव का पर्यायवाची नाम है।'
श्लोक १०:
३२. हिंसा से प्रतिबद्ध (आरंभणिस्सिया)
जो हिंसायुक्त व्यापार में आसक्त, संबद्ध, अध्युगमन होते हैं वे 'आरंभनिश्रित' कहे जाते हैं। ३३. तीव्र (तिव्वं)
यह दुःख का विशेषण है । चूणिकार ने इसका संस्कृत रूप 'त्रिम्' कर इसका अर्थ-कायिक आदि तीन प्रकार का कर्म किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है-कर्म ।' ३४. भोगता है (णियच्छइ)
इसका अर्थ है-भोगना, वेदन करना, अवश्य प्राप्त करना। आर्ष प्रयोग के कारण यहां बहुवचन के स्थान पर एक वचन है। संभव है कि छन्द की दृष्टि से ऐसा किया गया है ।
श्लोक ९-१० : ३५. श्लोक ९-१०
सत् एक था। यह सिद्धान्त ऋग्वेद में प्राप्त होता है। किन्तु वह 'सत्' आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है। एकात्मवाद का सिद्धान्त उपनिषदों में मिलता है । छान्दोग्य उपनिषद् में बताया है कि एक मृत् पिंड के जान लेने पर सब मृण्मय विज्ञात हो जाता है । घट आदि उसके विकार हैं । मृत्तिका ही सत्य है।"
चूर्णिकार ने पृथ्वी स्तूप की ब्याख्या दो प्रकार से की है
१. एक पृथ्वीस्तूर नाना प्रकार का दीखता है। जैसे-निम्मोन्नत भूभाग, नदी, समुद्र, शिला, बालू धूल, गुफा, कंदरा आदि भिन्न-भिन्न होने पर भी पृथ्वी से व्यतिरिक्त नहीं दीखती ।
२. एक मिट्टी का पिंड कुम्हार के चाक पर आरोपित होने पर भिन्न-भिन्न प्रकार से परिणत होता हुआ घट के रूप में निवर्तित होता है । उसी प्रकार एक ही आत्मा नाना रूपों में दृष्ट होता है।
इस प्रसंग में चूर्णिकार ने 'ब्रह्मबिन्दु' उपनिषद् का एक श्लोक उद्धृत किया है-एक ही भूतात्मा सब भूतों में व्यवस्थित है। वह एक होने पर भी जल में चन्द्र के प्रतिबिम्ब की भांति नाना रूपों में दिखाई देता है। १. भगवई २०१७ : जीवस्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णता?
गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा-जीवे इ वा......."विण्णू इ वा । २. वृत्ति, पत्र २० : आरम्भे-प्राण्युपार्दनकारिणि व्यापारे नि:श्रिता-आसक्ताः संबद्वा अध्युपपन्नाः । ३. चूणि, पृष्ठ २५; २६ : त्रित्रकारं कायिकादि कर्म .............."अथवा त्रिभिस्तापयतीति त्रिप्रम्, किञ्च तत् ? कर्म । ४. (क) चूणि, पृष्ठ २५ : णियच्छति वेदयतीत्यर्थः।
(ख) वृत्ति, पत्र २० : निश्चयेन यच्छन्त्यवश्यतया गच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति । ५. वृत्ति, पत्र २० : आर्षत्वाद् बहुवचनार्थे एकवचनमकारि। ६. ऋग्वेद १११६४१४६ : एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । ७. छांदोग्य उपनिषद् ६११४४ : यया सौम्यकेन मृपिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्यात् । वाचाारम्भणं विकारो नामधेयं, मृत्तिकेत्येव
सत्यम् । ८. चूणि, पृष्ठ २५ ॥ ६. ब्रह्मबिन्दूपनिषत् श्लोक १२ : एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुषा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥
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