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________________ सूयगडो १ ३१२ प्रध्ययन ६: टिप्पण९२-९६ वैनयिक के साथ 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग है । चूणिकार का अभिमत है कि द्वादशांग गणिपिटक वाद है और शेष तीन सौ तिरसठ मत 'अनुवाद' हैं । अनुवाद का एक अर्थ 'थोड़ा' भी हो सकता है।' ६२. पक्ष का निर्णय किया (पडियच्च ठाणं) यहां स्थान का अर्थ है-पक्ष, मत । अर्थात् चारों वादों को-पक्षों को जानकर उनकी प्रतीति कर ।' १३. जानकर (वेयइत्ता) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-जानकर' और वृत्तिकार ने-दूसरों को वस्तु के स्वरूप की जानकारी देकर-किया है।' ६४. दीर्घरात्र (यावज्जीवन तक) (दोहरायं) दीर्घरात्र का अर्थ है यावज्जीवन । 'रात्र' शब्द काल का द्योतक है । लंबा काल अर्थात् जीवन-पर्यन्त । श्लोक २८: ६५. तपस्वी (उवहाणवं) भगवान् महावीर ने केवल आश्रव का ही निरोध नहीं किया था, वे अपने पूर्व कर्मों के विनाश के लिए तपस्या भी करते थे। देखें-श्लोक २० का टिप्पण । १६. वर्जन किया (वारिया) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने माना है कि भगवान् ने स्वयं पहले मैथुन तथा रात्रीभोजन का परिहार किया और फिर उसका उपदेश दिया। जो व्यक्ति स्वयं धर्म में स्थित नहीं है, वह दूसरों को धर्म में स्थापित नहीं कर सकता ।" आचारांग सूत्र के नौवें अध्ययन में भगवान् महावीर की गृहस्थचर्या और मुनि-चर्या-दोनों का वर्णन है। चूणि की व्याख्या में यह स्पष्ट निर्देश है कि भगवान् विरक्त अवस्था में अप्रासुक आहार, रात्रीभोजन और अब्रह्मचर्य के सेवन का वर्जन कर अपनी चर्या १ चूणि, पृ० १५० : दुवालसंगं गणिपिडगं वादो, सेसाणि तिण्णि तिसट्टाणि अणुवादो, योवं वा अणुवादो। २. वृत्ति, पत्र १५१ : स्थानं पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, ..........."प्रतीत्य परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः । ३ चूणि, पृ० १५० : वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र १५२ : अपरान् सत्त्वान् यथावस्थिततत्त्वोपदेशेन 'वेदयित्वा' परिज्ञाप्प । ५. (क) चूणि, पृ० १५० : दोहरातं णाम जावज्जीवाए। (ख) वृति, पत्र १५२ : दीर्घरात्रम् इति यावज्जीवम् । ६. चूणि, पृ० १५० : उपधानवानिति न केवलं निरुद्धाश्रयः, पूर्वकर्मक्षयार्थ तपोपधानवानप्यसौ । ७ (क) चूणि, पृ० १५० : वारिया णाम वारयित्वा, प्रतिषेध्यते च । इत्थिग्रहणे तु मैथुनं गृह्यते । सराइभत्ते त्ति वारयित्वेति वर्तते, एतच्चाऽऽत्मनि वारयित्वा, न ह्यस्थितः स्थापयतीति कृत्वा, पश्चात् शिष्यान् वारितवान्, अद्वितो ण ठवेति परं ।... ... "सर्वस्मादकृत्यादात्मानं शिष्यांश्च वारितवानिति । (ख) वृत्ति, पत्र १५२ : एतदुक्तं भवति प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च स्थापितवान्, न हि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः, तदुक्तम् ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं स्व वचनविरुद्धं व्यवहरन्, परान्नालं कश्चिद्दमयितुमदान्तः स्वयमिति । भवानिश्चित्यवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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