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________________ ११८ सूर्यगडौ १ अध्ययन २ : टिप्पण ७९-८१ श्लोक ५८ ७६. सुख के पीछे दौड़ने वाले (सायाणगा) जो ऐहिक और पारलौकिक अपायों से निरपेक्ष होकर केवल सुख के पीछे दौड़ते हैं, वे 'सातानुग' कहलाते हैं।' ८०. आसक्त हैं (अज्झोववण्णा) जो ऋद्धि, रस और साता-इन तीन गौरवों में अत्यन्त आसक्त होते हैं वे अध्युपपन्न कहलाते हैं।' ८१. कृपण के समान ढीठ हैं (किवणेण समं पगम्भिया) चूर्णिकार ने 'किमणेण' पाठ मानकर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कोई व्यक्ति अतिचारों का सेवन करता है। दूसरा उसे अतिचार-निवृत्ति की प्रेरणा देता है तब वह कहता है-इस छोटे से दोष-सेवन से क्या होना-जाना है ? वह प्रत्येक अतिचार की उपेक्षा करता रहता है। धीरे-धीरे उसकी पापाचरण की वृत्ति बढ़ती जाती है और फिर वह बड़ा पाप करने में भी नहीं हिचकता। एक संस्कृत कवि ने कहा है-'करोत्यादौ तावत् सधृणहृदयः किंचिदशुभं ।" चूर्णिकार ने इसको और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है-एक व्यक्ति सफेद कपड़े पहने हुए था। उस पर कुछ कीचड़ लग गया। व्यक्ति ने सोचा-इस छोटे से धब्बे से क्या अन्तर आएगा? उसने उसकी उपेक्षा कर दी। उसे उसी समय धोकर साफ नहीं किया। फिर कभी उसी वस्त्र पर स्याही, श्लेष्म, चिकनाई आदि लग गई। उसने उसकी भी उपेक्षा कर दी। धीरे-धीरे वस्त्र अत्यन्त मलिन हो गया। कमरे के फर्श पर किसी बच्चे ने मल-मूल विसजित किए। उसे वहीं घिस डाला। इसी प्रकार श्लेष्म, नाक का मेल आदि भी वहीं डालते गए और घिसते गए। धीरे-धीरे गंदगी बढ़ती गई। एक दिन ऐसा आया कि सारा कमरा गन्दगीमय हो गया और उससे अत्यन्त दुर्गन्ध फूटने लगी। इसी प्रकार जो मुनि अपने चारित्र पटल पर लगने वाले छोटे से धब्बे की उपेक्षा करता है वह अपने संपूर्ण चारित्र को गंवा देता है। चूणिकार ने दो दृष्टान्तों की सूचना दी है-(१) भद्रक महिष और (२) आम्रभक्षी राजा (उत्तराध्ययन ७/११)।' १. (क) चूणि, पृ० ७० : सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा इहलोगपरलोगनिरवेक्खा । (ख) वृत्ति, पत्र ७२ : सात-सुखमनुगच्छन्तीति सातानुगाः-सुखशीला ऐहिकामुष्मिकापायभीरवः । २. (क) चूणि, पृ०७० : एवं इड्-िरस-सायागारवेसु अज्झोववण्णा अधिकं उपपण्णा अज्झोववण्णा । (ख) वृत्ति, पत्र ७२ : समृद्धिरससातागोरवेषु अध्युपपन्ना गृद्धाः। ३. चूणि, पृ० ७० : ते पि अइयारेषु पसज्जमाणा यदा परैश्चोद्यन्ते तदा ब्रवते-किमनेन स्वल्पेन दोषेण भविष्यति ? वितधं वा दुप्पडिलेहित-दुब्भासित-अणाउत्तगमणादि? एवं थोवयोवं पावमायरंता पदे पदे विसीदमाणा सुबहून्यपि पापान्याचरन्ति । ४. चणि, पृ० ७०: चूर्णिकार ने श्लोक का यह एक चरण मात्र दिया है। यह पूरा श्लोक इस प्रकार उपलब्ध होता है 'करोत्यादौ किञ्चत् सघृणहृदयस्तावदशुभं, द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्य प्रकुरुते । तृतीयं निःशंको विगतघृणमन्यच्च कुरुते, ततः पापाभ्यासात् सततमशुभेषु प्ररमते ।। (बृहत्कल्पभाष्य गाथा ६६४, वृत्ति पृ० ३१३ में उद्धृत) ५. चूणि, पृ० ७१ : दिलैंतो जधा - एगस्स सुद्ध वत्थे पंको लग्गो। सो चितेति-किमेत्तियं करिस्सति ? ति तत्थेव हसितं, एवं वितियं मसि-खेल-सिंघाणग-सिणेहादीहि सव्वं मइलीभूतं । अधवा मणिकोट्टिमे चेडरूवेण सण्णा वोसिरिता, सा तत्थेव घट्ठा। एवं खेल-सिंघाणादीणि वि 'किमेताणि करिस्संति ?' ति तत्थेव तत्थेव घट्टाणि । जाव तं मणिकोट्टिम सव्वं लेक्खादीहि-श्लेष्मादिभिः मलिनीभूतं दुग्गंधिगं च जातं । भद्दगमहिसो वि एत्य दिळंतो भाणितब्वो । अंबभक्खी राया दिलैंतो य । एवं पदे पदे विसीदंतो किमणेण दुम्मासितेण वा स्तोकत्वावस्य चरित्तपडस्स मलिणीमविस्सति ? जाव सम्वो चरित्तपडो मइलियो अचिरेण कालेण, चरित्तमणिकोट्टिम वा। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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