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________________ सूयगडो १ १०५ अध्ययन २ : टिप्पण ४१-४२ भी यही अभिमत है।' अधार्मिक मनुष्य भी यह नहीं कहता कि मैं अधर्म करता हूं। यह तथ्य एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया महाराज श्रेणिक राज्य सभा में बैठे थे। धर्म की चर्चा चल पड़ी। प्रश्न उपस्थित हुआ कि धार्मिक कौन है ? पार्षदों ने कहा-धार्मिक कहां मिलता है ? प्रायः सभी लोग अधामिक हैं। अभयकुमार ने इसके विपरीत कहा। इस संसार में अधार्मिक कोई नहीं है। पार्षदों ने इसे मान्य नहीं किया। तब परीक्षा की स्थिति उत्पन्न हो गई । अभयकुमार ने दो भवन निर्मित करवाए-एक धवल और एक काला । नगर में घोषणा करवाई गई-जो धार्मिक हैं वे धवल भवन में चले जाएं और जो अधार्मिक हैं वे काले भवन में चले जाएं। सभी नागरिक धवल गृह में चले गए। अधिकारियों ने एक व्यक्ति से पूछा-क्या तुम धार्मिक हो ? उसने कहा-मैं किसान हूं। हजारों पक्षी मेरे धान्य-कणों को चुगकर जीते हैं, इसलिए मैं धामिक हूं। दूसरे ने कहा-मैं वणिक हूं। मैं प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन कराता हूं, इसलिए मैं धार्मिक हूं। तीसरे ने कहा-मैं अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करता हूं, कितने कष्ट का काम है यह ! फिर मैं धामिक कैसे नहीं हूं ? चौथे ने कहा-मैं कसाई हूं। मैं अपने कुलधर्म का पालन करता हूं। मेरे धन्धे से हजारों मांसभोजी लोग पलते हैं। इसलिए मैं भी धार्मिक हूं। इस प्रकार सभी लोगों ने अपने आपको धार्मिक बतलाया। अभयकुमार विजयी हो गया। दो व्यक्ति काले भवन में गए। पूछने पर बताया-हम श्रावक हैं। धार्मिक मनुष्य सदा अप्रमत्त रहते हैं । हमने एक बार मद्यपान कर लिया। हमारा अप्रमाद का व्रत भंग हो गया। हम अधार्मिक हैं, इसलिए हम धवल भवन में नहीं गए। अधिकांश लोग अपने आपको धार्मिक मानते हैं और प्रत्येक आचरण या कुलक्रमागत कार्य को धर्म का ही रूप देते हैं। अधर्म नाम किसी को प्रिय नहीं है। इसी लोक-भावना को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने धर्म के लिए 'बहुजननमन' शब्द का प्रयोग किया है। कुछ व्याख्याकारों ने बहुजननमन' का अर्थ लोभ भी किया है। प्रायः सभी लोग लोभ के प्रति प्रणत होते हैं। इस आधार पर यह अर्थ असंगत भी नहीं है। धर्मोपदेष्टा को लोभ का संवरण करने वाला होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से भी यह असंगत नहीं श्लोक ३३: ४१. वंदना-पूजा (वंदणपूयणा) आक्रोश, ताड़ना आदि को सहन करना सरल है, किन्तु वंदना और पूजा के समय अनासक्त रहना बहुत कठिन है। इसलिए वन्दना और पूजा को सूक्ष्म शल्य कहा गया है। यह ऐसा हृदय-शल्य है जिसे हर कोई सहज ही नहीं निकाल पाता। श्लोक ३४: ४२. अकेला (एगे) 'एक' शब्द की व्याख्या द्रव्य और भाव-दो दृष्टिकोणों से की गई है। द्रव्य की दृष्टि से एकलविहारी भिक्षु अकेला होता है और भाव की दृष्टि से राग-द्वेष रहित होना अकेला होना है। एकलविहारी भिक्षु को पवनयुक्त या पवन रहित, सम या विषम जैसा १.वृत्ति, पत्र ६३ ॥ २. (क) चूणि, पृ० ६१। (ख) वृत्ति, पत्र ६३-६४ । ३. चूणि, पृ०६१: सर्वलोको हि धर्ममेव प्रणतः न हि कश्चित् परमाधामिकोऽपि ब्रवीति-अधम्मं करेमि। ४. वही पृ०६१ : अन्ये त्वाहु :-बहुजननमनः लोमः सर्वो हि लोकस्तस्मिन् प्रणतः। ५. (क) चूणि, पृ० ६३ : शक्यमाक्रोशताडनादि तितिक्षितुम्, दुःखतरं तु वन्द्यमाने पूज्यमाने वा विषयैर्वा विलोभ्यमाने निःसङ्गता भावयितुमिति एवं सूक्ष्मं भावशल्यं दुःखमुद्धतं हृदयादिति । (ख) वृत्ति, पत्र ६५॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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