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________________ सूर्यगडो १ अध्ययन ४: प्रामुख बाजार से ले चले। उसका मुंह ढंका हुआ था । वह चिल्ला रहा था, 'मुझे बचाओ। मैं प्रद्योत राजा हूं। मुझे जबरदस्ती पकड़कर ले जा रहे हैं। लोग इस चिल्लाहट को सुनने के आदी हो गए थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। उसे बंदी अवस्था में लाकर अभयकुमार ने श्रेणिक को सौंप दिया। कूलबाल महाराज अजातशत्रु वैशाली के प्राकारों को भंग करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी प्रतिज्ञा सफल नहीं हो रही थी। एक व्यन्तरी ने महाराज ने कहा-राजन् ! यदि मागधिका वेश्या तपस्वी क्लबाल को अपने फंदे में फंसा ले तो आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है। मागधिका वेश्या चंपा में रहती थी। महाराजा अजातशत्रु ने उसे बुला भेजा और अपनी बात बताई। वेश्या ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी। कूलबाल तपस्वी का अता-पता किसी को ज्ञात नहीं था। गणिका ने श्राविका का कपटरूप बनाया। आचार्य के पास आने जाने से उसका परिचय बढ़ा और एक दिन मधुर वाणी से आचार्य को लुभा कर तपस्वी का पता जान ही लिया। वह तपस्वी कुलबाल अपने शाप को अन्यथा करने के लिए एक नदी के किनारे कायोत्सर्ग में लीन रहता था। जब कभी आहार का संयोग होता, भोजन कर लेता, अन्यथा तपस्या करता रहता । कायोत्सर्ग और तपस्या ही उसका कर्म था। गणिका उसी जंगल में पहुंची जहां तपस्वी तपस्या में लीन थे। उनकी सेवा-सुश्रुषा का बहाना बनाकर उसने वहीं पड़ाव डाला। मुनि को पारणे के लिए निमंत्रित कर, औषधि मिश्रित मोदक बहराए। उनको खाने से मुनि अतिसार से पीड़ित हो गए। यह देखकर मागधिका ने कहा- मुनिवर ! अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। आप मेरे आहार से रोगग्रस्त हुए हैं। मैं आपको स्वस्थ करके ही यहां से हटूंगी।" अब वह प्रतिदिन मुनि का वैधावृत्य, अगमर्दन और भिन्न-भिन्न प्रकार से सेवा करने लगी । मुनि का अनुराग बढ़ता गया। दोनों का प्रेम पति-पत्नी के रूप में विकसित हुआ और मुनि अपने मार्ग से च्युत हो गए। ये तीनों दृष्टान्त इस बात के द्योतक हैं कि स्त्री-परवशता सबको पराजित कर देती है। वृत्तिकार ने 'सुसमत्थाऽवस मत्था .. ....[नियुक्तिगाथा ५६]' की व्याख्या के अन्तर्गत पन्द्रह श्लोकों में स्त्रियों के उन गुणों की चर्चा की है जिनके कारण वे अविश्वसनीय होती हैं। ग्रन्थकार यहां तक कहते है-'गंगा के बालुकणों को गिना जा सकता है, सागर के पानी का माप हो सकता है, और हिमालय का परिमाण जाना जा सकता है, उसे तोला जा सकता है, परन्तु महिलाओं के हृदय को जान पाना विचक्षण व्यक्तियों के लिए भी अशक्य है।' नियुक्तिकार ने अंत में यह भी प्रतिपादित किया है कि स्त्रियों के संसर्ग से जो-जो दोष पुरुषों में आपादित होते हैं, वे ही दोष पुरुषों के संसर्ग से स्त्रियों में भी आपादित होते हैं।' प्रस्तुत अध्ययन में उपमाओं के द्वारा समझाया गया है कि किस प्रकार स्त्रियां पुरुषों को (मुनियों को) अपने फंदे में फसाती हैं १. सोहं जहा व कुणिमेणं (श्लोक ८) २. अह तत्थ पुणो णमयंति, नहकारो व मि अणुपुम्वोए (श्लोक ९) ३. बद्धे मिए व पासेणं (श्लोक ६) ४. भोच्चा पायसं वा विसमस्सं (श्लोक १०) ५. विसलित्तं व कंटगं णच्चा (श्लोक ११) ६. जउकुम्भे जोइसुवगूढे (श्लोक २७) ७. णोवारमेवं बुज्झज्जा (श्लोक ३१) प्रस्तुत अध्ययन की चूणि और वृत्ति में कामशास्त्र संबंधी अनेक प्राचीन श्लोक संगृहीत हैं। उनका संकलन भी बहुत १. वृत्तिकार के अनुसार यह नियुक्ति का उनसठवां श्लोक है और चूणिकार के अनुसार यह बावनवां श्लोक है। २. वृत्ति, पत्र १०३-१०४ । ३. वृत्ति, पत्र १०४ : गंगाए वालुया सागरे जलं हिमवओ य परिमाणं । जाणंति बुद्धिमंता महिलाहिययं ण जाणंति ॥ ४. नियुक्ति गाथा ५४ : एते चेव य दोसा पुरिसपमादे वि इत्थिगाणं पि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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