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________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम है—स्त्रीपरिज्ञा । तीसरे अध्ययन में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों के प्रकार और उनको सहने के उपाय निर्दिष्ट थे । अनुकूल उपसर्गों को सहना कठिन होता है। उनमें भी स्त्रियों द्वारा उत्पादित उपसर्ग अत्यन्त दुःसह होते हैं। हर कोई व्यक्ति उनको सहने में समर्थ नहीं हो सकता । इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है - स्त्री संबंधी उपसर्गों की उत्पत्ति के कारणों का कथन और सुसमाहित मुनि द्वारा उनके निरसन के उपायों का निदर्शन । इसके दो उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में ३१ और दूसरे में २२ श्लोक है। पहले उद्देश संसर्ग का वर्जन करना चाहिए । जो मुनि स्त्रियों के साथ परिचय करता है, उनके साथ संलाप आदृष्टि से देखता है, वह मुनि पच्युत हो जाता है, संयमप्युत हो जाता है। दूसरे उद्देशक में कहा गया है कि जो मुनि (या गृहस्थ ) स्त्रियों के वशवर्ती होते हैं वे अनेक विडम्बनाओं को प्राप्त होते हैं । किस प्रकार स्त्रियां उन पर अनुशासन करती हैं और दास की तरह उन्हें नानाविध कार्यों में व्यापृत रखती हैं - यह भी सुन्दर रूप से वर्णित है । वह आचार से भ्रष्ट साधु अपने वर्तमान जीवन में स्वजनों से तथा दूसरे लोगों से तिरस्कार को प्राप्त होता है और घोर कर्म-बन्धन करता है । इस कर्म बंधन के फल स्वरूप वह संसार- भ्रमण से छुटकारा नहीं पा सकता । स्त्री का विपक्ष है पुरुष । साध्वी के लिए प्रस्तुत अध्ययन को 'पुरुष परिज्ञा' के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। नियुक्तिकार ने पुरुष के दस निक्षेप निर्दिष्ट किए हैं। वे इस प्रकार है' १. नाम- पुरुष - जिसकी संज्ञा पुल्लिंग हो, जैसे घट, पट आदि । अथवा जिसका नाम 'पुरुष' हो । २. स्थापना - पुरुष - लकडी या प्रस्तर से बनी प्रतिमा में किसी का आरोपण कर देना, जैसे - यह महावीर की प्रतिमा है । ३. द्रव्य- पुरुष - धन प्रधान पुरुष, धनार्जन की अति लालसा रखने वाला पुरुष, जैसे - मम्मण सेठ | ४. क्षेत्र - पुरुष -- क्षेत्र से संबोधित होने वाला पुरुष, जैसे- सौराष्ट्रिक मागधिक आदि । ५. काल पुरुष -- जो जितने काल तक 'पुरुष वेद' का अनुभव करता है । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - 'भंते ! पुरुष कितने समय तक पुरुष होता है ?' भगवान् ने कहा - गीतम! जवन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः कुछ न्यून सौ सागर तक । अथवा कोई पुरुष एक अपेक्षा से पुरुष होता है और दूसरी अपेक्षा से नपुंसक ।' ६. प्रजनन- पुरुष -- जिसके केवल पुरुष का चिह्न - शिश्न है, किन्तु जिसमें पुंस्त्व नहीं है, वह प्रजनन पुरुष है । ७. कर्म-पुरुष जो पन्त पोषयुक्त कार्य करता है। वृतिकार ने कर्मकर-नौकर को कर्मपुरुष माना है।' ८. भोग-पुरुष- भोग प्रधान पुरुष । १. नियुक्ति गाथा ४६ : णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पजणणे कम्मे । भोगे गुणे य भावे, दस एते पुरिसणिक्खेवा || १०२ । में कहा गया है कि मुनि को स्त्रीकरता है, उनके अंग-प्रत्यंग को - चूर्ण, पृ० १०१, २. पूर्ण, पृ० १०१ पुरिसे भंते पुरियो ति कालतो केवचिरं होति ? जय एवं समयं उनकोसे सायरस ॥ वृत्तिकार ने ( वृत्ति पत्र १०३ ) इस प्रसंग में भिन्न पाठ उद्धृत किया है--यथा- पुरिसेणं मंते ! पुरिसोत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गो० जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं जो जम्मि काले पुरिसो भवइ । ३. (क) कृषि, पृ० १०२ (जहा कोई एवम्मि पक्ले पुरिसो) एवम्मि पक्के नपुंसयो । (ख) वृत्ति पत्र १०३। ४. पृ० १०२ कम्मो नाम यो हि अतिपरवाणि सम्माणि करोति ५. वृत्ति पत्र १०३ : कर्म-अनुष्ठानं तत्प्रधान: पुरुष: कर्मपुरुषः कर्मकराविकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only सकर्मपुरुष: www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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