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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम है-'समवसरण' । समवसरण का अर्थ है-वाद-संगम । जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं। इस अध्ययन में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद---इन चारों वादों (तीन सौ तिरेसठ अवान्तर भेदों) की कुछेक मान्यताओं की समालोचना कर, यथार्थ का निश्चय किया गया है। इसलिए इसे समवसरण अध्ययन कहा गया है।
आगम सूत्रों में विभिन्न धार्मिक वादों का चार श्रेणियों में वर्गीकरण मिलता है-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद । इनके अवान्तर भेद अनेक हैं। नियुक्ति में अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद और विनय के आधार पर विनयवाद का प्रतिपादन है।' चारों वादों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैक्रियावाद
जो दर्शन आत्मा, लोक, गति, अनागति, जन्म-मरण, शाश्वत, अशाश्वत, आस्रव, संवर, निर्जरा को मानता है वह क्रियावादी है। इसका फलित है कि जो अस्तित्ववाद, सम्यग्बाद, पुनर्जन्मवाद और आत्मकर्तृत्ववाद में विश्वास करता है वह क्रियावादी दर्शन है।
नियुक्तिकार ने क्रियावाद के १८० प्रवादों का उल्लेख किया है । आचार्य अकलंक ने मरीचिकुमार, उलूक, कपिल आदि को क्रियावादी दर्शन के आचार्य माना है। भक्रियावाद
ये चार नास्ति मानते हैं१. आत्मा की नास्ति २. आत्म-कर्तृत्व की नास्ति ३. कर्म की नास्ति ४. पुनर्जन्म की नास्ति यह एक प्रकार से नास्तिकवादी दर्शन है । स्थानांग में अक्रियावाद के आठ प्रकार बतलाए गए हैं।' कपिल, रोमश, अश्वलायन आदि इस दर्शन के प्रमुख आचार्य थे ।
चूर्णिकार ने सांख्य दर्शन और ईश्वरकारणिक वैशेषिक दर्शन को अक्रियावादी दर्शन माना है।' तथा पंचभूतवादी, चतुर्भूतवादी, स्कंधमात्रिक, शून्यवादी और लोकायतिक-इन दर्शनों को भी अक्रियावाद में गिना है। ......... अज्ञानवाद
इस दार्शनिकवाद का आधार है अज्ञान । इनका मानना है कि सब समस्याओं का मूल है ज्ञान, इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। ज्ञान से लाभ ही क्या है ? शील में उद्यम करना चाहिए । ज्ञान का सार है-शील संवर । शील और तप से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। १. वृणि, पृ० २०७ : समवसरंति जेसु बरिसणाणि विट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि । २. नियुक्ति गाथा ११३ : तेसि मताणुमतेणं, पण्णवणा वण्णिताणे इहऽजायणे ।
सम्भावणिच्छयत्थं, समोसरणमाहु तेणं ति ॥ ३. नियुक्ति गाथा १११ : अत्थि ति किरियवादी वयंति, णत्थि त्ति अकिरियवादी य।
अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी॥ ४. ठाणं दा२२॥ ५. चूणि, पृ० २०९ : संख्या (सांख्या) वैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियावादी ......... ..वही, पृ० २०७:. . . * "पंचमहाभूतिया चतुभूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवाविणो लोगायतिगा इच्चादि अकिरियावाविणो। ७. देखें-१३१४१ का टिप्पण तथा प्रस्तुत अध्ययन का नं०१का टिप्पण ।
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