________________
प्र०८ : वीर्य : श्लोक ८-१६
सम्परायं नियच्छंति, आर्त्तदुष्कृतकारिणः । रागदोषश्रिताः बाला:, पापं कुर्वन्ति ते बहु ।।
८. विषय और कषाय से आर्त होकर हिंसा आदि दुष्कृत करने वाले मनुष्य" संसार (जन्म-मरण)" से बंध जाते हैं। वे राग-द्वेष के वशीभूत होकर बहुत पाप करते हैं।
सूयगडो १ ८. संपरायं णियच्छति
अत्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला पावं कुव्वंति ते बहुं ॥ ६.एतं सकम्मविरियं बालाणं तु पवेइयं । एत्तो अकम्मविरियं
पंडियाणं सुणेह मे ॥ १०.दविए बंधणुम्मुक्के
सव्वतो छिण्णबंधणे। पणोल्ल पावगं कम्म
सल्लं कंतति अंतसो। ११.णेयाउयं सुयक्खातं
उवादाय समीहते। भुज्जो भुज्जो दुहावासं असुहत्तं तहा तहा॥
एतत् सकर्मवीय, बालानां तु प्रवेदितम् । इत अकर्मवीर्य, पंडितानां शृणुत मे ॥
६. यह बाल मनष्यों का सकती
अब पंडित मनुष्यों के अकर्मवीर्य को मुझसे सुनो।
बन्धनोन्मुक्तः, सर्वतः छिन्नबन्धनः । प्रणुद्य पापकं कर्म, शल्यं कन्तति अन्तशः ॥
१०. वीतराग की भांति आचरण करने वाला," कषाय के
बंधन से मुक्त," प्रमाद या हिंसा में सर्वत: प्रवृत्त नहीं होने वाला मनुष्य पाप-कर्म को दूर कर संपूर्ण" शल्य को काट देता है।
नर्यात्रिक स्वाख्यातं, उपादाय समीहते । भूयो भूयो दुःखावासं, अशुभत्वं तथा तथा ।
११. वह मोक्ष की ओर ले जाने वाले सु-आख्यात
(धर्म) को" पा चिन्तन करता है"-प्राणी बार-बार दुःखमय आवासों को प्राप्त होता है। जैसा-जैसा कर्म होता है वैसा-बसा अशुभ फलता है।
१२. ठाणी विविहठाणाणि
चइस्संति ण संसओ। अणितिए अयं वासे णातीहि य सुहीहि य॥
स्थानिनः विविधस्थानानि, १२. स्थानी (उच्च स्थान प्राप्त)" अपने विविध स्थानों त्यक्ष्यन्ति न संशयः ।
को छोड़ेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। ज्ञातिजनों अनित्योऽयं वासः, और मित्रों के साथ यह वास नित्य नहीं है। ज्ञातिभिश्च सुहृद्भिश्च ॥
१३. एवमायाय मेहावी अप्पणो
गिद्धिमुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सव्वधम्ममकोवियं ॥
एवमादाय
मेधावी, आत्मनो गृद्धिमुद्धरेत् । आर्य उपसंपद्येत, सर्वधर्माऽकोपितम्
१३. ऐसा सोचकर मेधावी मनुष्य अपनी गृद्धि को छोड़
दे और सब धर्मों में निर्मल"आर्यधर्म को स्वीकार करे।
१४. सहसंमइए णच्चा
धम्मसारं सुणेत्तु वा। समुवट्टिए अणगारे पच्चक्खायपावए ॥
स्वसम्मत्या ज्ञात्वा, धर्मसारं श्रुत्वा वा । समुपस्थितः अनगारः, प्रत्याख्यातपापकः ॥
१४. धर्म के सार को अपनी मति से" जान अथवा दूसरों
से सुन, उसके आचरण के लिए उपस्थित हो, पाप का प्रत्याख्यान कर अनगार बन जाता है।"
यत् किञ्चिद् उपक्रमं जानीयात्, १५. पंडित अनगार अपने आयुक्षेम का" जो कोई उपक्रम
आयुःक्षेमस्य आत्मनः । (विघ्न) जाने तो उस (आयुक्षेम) के अन्तराल में तस्यैव अन्तरा क्षिप्रं, ही शीघ्रता से शिक्षा (संलेखना) का" सेवन करे । शिक्षा शिक्षेत पंडितः ।।
१५. जं किंचुवक्कम जाणे
आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए॥ १६. जहा कुम्मे सअंगाई
सए देहे समाहरे। एवं पाहि अप्पाणं अज्झप्पेण समाहरे॥
यथा कूर्मः स्वाङ्गानि, स्वे देहे समाहरेत् । एवं पापेभ्यः आत्मानं, अध्यात्मनि समाहरेत् ॥
१६. जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट
लेता है, इसी प्रकार पंडित पुरुष अपनी आत्मा को पापों से बचा अध्यात्म में" ले जाए।
Jain Education Intemational
Jain Education Intermational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org