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सूयगडो १
म०८: वीर्य : श्लोक १७-२५
१७. वह हाथ, पैर, मन, सब इन्द्रियों, बुरे परिणामों"
और भाषा के दोषों का संयम करे ।
१७. साहरे हत्थपाए य
मणं सटिवदियाणि य। पावगं च परीणामं भासादोसं च पावगं ॥
संहरेत् हस्तपादांश्च, मनः सर्वेन्द्रियाणि च । पापकं च परीणाम, भाषादोषं च पापकम् ॥
१८. अणु माणं च मायं च
तं परिण्णाय पंडिए। सुतं मे इह मेगेसि एवं वीरस्स वीरियं ॥
अन मानं च मायां च, तं परिज्ञाय पंडितः । श्रुतं मे इह एकेषां, एतद् वीरस्य वीर्यम् ॥
१८, पंडित पुरुष कषाय के परिणामों को जानकर अणुमात्र
भी मान" और माया का आचरण न करे । मैंने तीर्थंकरों से यह सुना है कि यह वीर का वीर्य है।"
१६. उड्ढमहे तिरियं दिसासु
जे पाणा तस थावरा। सम्वत्थ विरति कुज्जा संति णिव्वाणमाहितं ॥
ऊर्ध्व अधः तिर्यग् दिशासु, ये प्राणाः त्रसाः स्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात्, शान्तिनिर्वाणमाहृतम् ॥
१६. ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो कोई त्रस
और स्थावर प्राणी हैं, सब अवस्थाओं में उनकी हिंसा से विरत रहे । (विरति ही) शांति है और शांति ही निर्वाण है।
२०.पाणे य णाइवाएज्जा
अदिण्णं पि य णातिए। सातियं ण मुसं बूया एस धम्मे वुसीमओ॥
प्राणांश्च नातिपातयेत्, अदत्तमपि च नादद्यात् ।
साचिकं न मृषा ब्रूयात्, ___ एष धर्मः वृषीमतः॥
२०. प्राणियों का अतिपात न करे, अदत्त भी न ले, कपट
सहित" झूठ न बोले । यह मुनि का" धर्म है।
२१. महाव्रतों का वाणी से अतिक्रम न करे। मन से भी
उनके अतिक्रम की इच्छा न करे । वह सब ओर से संवृत और दान्त होकर इन्द्रियों का संयम करे।"
२२. आत्मगुप्त" और जितेन्द्रिय मुनि किए हुए, किए
जाते हुए और किए जाने वाले उस समग्र पाप की अनुमति नहीं देते।
२१. अतिक्कमंति वायाए
मणसा वि ण पत्थए। सव्वओ संवुडे दंते
आयाणं सुसमाहरे ॥ २२. कडं च कज्जमाणं च
आगमेस्सं च पावगं । सव्वं तं जाणजाणंति
आयगुत्ता जिइंदिया। २३.जे याऽबुद्धा महाभागा । वीरा सम्मत्तदंसिणो। असुद्धं तेसि परक्कंतं
सफलं होइ सव्वसो॥ २४.जे उ बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धं तेसि परक्कंत
अफलं होइ सव्वसो॥ २५. तेसि तु तवोसुद्धो णिक्खंता जे महाकुला। अवमाणिते परेणं तु। ण सिलोगं वयंति ते॥
अतिक्रममिति वाचा, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् । सर्वतः संवृतो दान्तः, आदानं सुसमाहरेत् ।। कृतं च क्रियमाणं च, आगमिष्यं च पापकम् । सर्वं तत् नानुजानन्ति, आत्मगुप्ताः जितेन्द्रियाः ॥ ये च अबुद्धाः महाभागाः, वीराः असम्यक्त्वदर्शिनः । अशुद्धं तेषां पराक्रान्तं, सफलं भवति सर्वशः ।। ये तु बुद्धाः महाभागाः, वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः । शुद्धं तेषां पराक्रान्तं, अफलं भवति सर्वशः ॥
२३. जो अबुद्ध, महाभाग (महापूज्य), वीर (सकर्मवीर्य में
अवस्थित) और असम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम अशुद्ध और सर्वशः सफल (कर्मबंधयुक्त) होता है ।
२४. जो बुद्ध, महाभाग, वीर (अकर्मवीर्य में अवस्थित)
और सम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम शुद्ध और सर्वशः अफल (कर्मबंधमुक्त) होता है।
तेषां तु तपः शुद्धं, निष्क्रान्ताः ये महाकुलात् । अपमानिताः परेण तु, न श्लोकं वदन्ति ते ॥
२५. उनका तप शुद्ध होता है जो बड़े कुलों से अभि
निष्क्रमण कर मुनि बनते हैं और दूसरों के द्वारा अपमानित होने पर अपनी श्लाघा नहीं करतेअपने बड़प्पन का परिचय नहीं देते।
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