________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लोहोलोह जाव घडावित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, को० स० 2 एवं वदासी-खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! हस्थिणापुरं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसिय जाय तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / 6] तदनन्तर एक दिन राजा शिव को रात्रि के पिछले पहर में (पूर्वरात्रि के बाद अपर रात्रि काल में) राज्य की धुरा-कार्यभार का विचार करते हुए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि यह मेरे पूर्व-पुण्यों का प्रभाव है, इत्यादि तीसरे शतक के प्रथम उद्दे शक में वर्णित तामलि-तापस के वृत्तान्त के अनुसार विचार हुआ- यावत् मैं पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल (सैन्य), वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर इत्यादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। प्रचुर धन, कनक, रत्न यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ। तो क्या मैं पूर्वपुण्यों के फलस्वरूप यावत् एकान्तसुख' का उपभोग करता हुअा विचरण करू ? अतः अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि जब तक मैं हिरण्य प्रादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ, यावत् जब तक सामन्त राजा आदि भी मेरे वश में (अधीन) हैं तब तक कल प्रभात होते ही जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं बहुत-सी लोढ़ी, लोहे की कडाही, कुडछी और ताम्बे के बहुत-से तापसोचित उपकरण (या पात्र) बनवाऊँ और शिवभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित (राजगद्दी पर बिठा)करके और पूर्वोक्त बहुत-से लोहे एवं ताम्बे के तापसोचित भांड-उपकरण ले कर, उन तापसों के पास जाऊँ जो ये गंगातट पर वानप्रस्थ तापस हैं; जैसे कि-अग्निहोत्री, पोतिक (वस्त्रधारी) कौत्रिक (पृथ्वी पर सोने वाले ) याज्ञिक, श्राद्धी (श्राद्धकर्म करने वाले), खप्परधारी (स्थालिक), कुण्डिकाधारी श्रमण, दन्त-प्रक्षालक, उन्मज्जक, सम्मज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकण्डक, अधःकण्डक, दक्षिणकलक, उत्तरकलक, शंखधमक (शंख फूक कर भोजन करने वाले), कूलधमक (किनारे पर खड़े होकर आवाज करके भोजन करने वाले), मगलुब्धक, हस्तीतापस, जल से स्नान किये बिना भोजन नहीं करने वाले, पानी में रहने वाले, वायु में रहने वाले, पट-मण्डप में रहने वाले, बिलवासी, वृक्षमूलवासी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवालभक्षक, मूलाहारी, कन्दाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, फलाहारी, बीजाहारी, सड़ कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल और फल खाने वाले, दण्ड ऊँचा रख कर चलने वाले, वृक्षमूलनिवासी, मांडलिक, वनवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि ताप तपने वाले (अपने शरीर को अंगारों से तपा कर काष्ठ-सा बना देने वाले) इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् जो अपने शरीर को काष्ठ-सा बना देते हैं। उनमें से जो तापस दिशाप्रोक्षक हैं, उनके पास मुण्डित हो कर मैं दिक्प्रोक्षक-तापस-रूप प्रव्रज्या अंगीकार करूँ। प्रबजित होने पर इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण करूं कि बावज्जीवन निरन्तर (लगातार) छठ-छठ (बेले-बेले) की तपस्या द्वारा दिक्चक्रवाल तपःकर्म करके दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर रहना मेरे लिए कल्पनीय है; इस प्रकार का शिव राजा ने विचार किया। . और फिर दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर अनेक प्रकार की लोढ़ियाँ, लोहे की कड़ाही अादि तापसोचित भण्डोपकरण तैयार कराके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहाहे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर जल का छिड़काव करके स्वच्छ, (सफाई) कराओ, इत्यादि ; यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञानुसार कार्य करवा कर राजा से निवेदन किया / विवेचन -शिव राजा का तापसप्रव्रज्या लेने का संकल्प और तयारी प्रस्तुत छठे सूत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org