________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] [ 563 "तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिसुब्बतेणं अरहया एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ० मुणिसुव्वं अरहं वंदति नमसति, वं० 2 मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणातो पडिनिक्खमति, पडि० 2 जेणेय हस्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 विपुलं असण-पाण० जाव उवक्खडावेह, उव० 2 मित्त-णाति-णियग० जाव पामतेति, आ० 2 ततो पच्छा पहाते जहा पूरणे (स० 3 उ० 2 सु० 19) जाव जेट्टपुत्तं कुडुवे ठावेति, ठा० 2 तं मित्त-णाति० जाव जेट्टपुत्तं च प्रापुच्छति, प्रा० 2 पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहति, पुरिससह० 2 मित्त-णाति-नियग० जाव परिजणेणं जेटुपुत्तेण य समणुगम्ममाणमग्गे सविड्डीए जाव णादितरवेणं हस्थिणापुरं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 छत्तादिए तित्थगरातिसए पासति, एवं जहा उद्दायणो (स० 13 उ० 6 सु० 30) जाव सयमेव आभरणं ओमुयइ, स० 2 सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, स० 2 जेणेव मुणिसुन्वये अरहा, एवं जहेव उद्दायणो (स० 13 उ० 6 सु० 31) तहेव पन्वइयो। तहेव एक्कारस अंगाई अधिज्जइ जाव मासियाए संलहणाए ट्ठि भत्ताई अणसणाए जाव छेडेति, सदि० 2 आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उक्वायसभाए देवसएणिज्जसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने।" "तए णं ते गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छति, तं जहा- आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए।" "एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमन्नागया"। [16 प्र. भगवन ! गंगदत्त देव को वह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति कैसे उपलब्ध हुई ? यावत् जिससे गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि उपलब्ध, प्राप्त और यावत् अभिसमन्वागत (सम्मुख) की? [16 उ.] 'हे गौतम !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहा-"गौतम ! बात ऐसी है कि उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का नगर था / उसका वर्णन पूर्ववत् / वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था / उसका वर्णन भी पूर्ववत् समझना / उस हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त नाम का गाथापति रहता था / वह आढ्य यावत् अपराभूत (अपराजेय) था। उस काल उस समय में धर्म (तीर्थ) की प्रादि (प्रवर्तन) करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी आकाशगत (धर्म) चक्रसहित यावत् देवों द्वारा खींचे जाते हुए धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगण से संपरिवृत्त हो कर अनुक्रम से विचरते हुए और ग्रामानुग्राम जाते हुए, यावत् मुनिसुव्रत अर्हन्त थावत् सहस्रा म्रवन उद्यान में पधारे, यावत् यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके विचरने लगे। परिषद् वन्दना करने के लिए प्राई यावत् पर्युपासना करने लगी। ___ जब गंगदत्त गाथापति ने भगवान श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के पदार्पण की बात सुनी तो वह अतीव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने स्नान और बलिकर्म किया यावत् शरीर को अलंकृत करके वह अपने घर से निकला और पैदल चल कर हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ सहस्राम्रवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org