________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 2] [289 5. [1] नेरतियाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हन्वमागच्छंति, अजीवदव्वाणं नेरतिया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा! नेरतियाणं अजीवदव्वा जाव हब्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं नेरतिया जाव हन्वमागच्छति / [5-1 प्र.] भगवन् ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं अथवा नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं ? [5-1 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं, किन्तु नैरयिक, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते। [2] से केणोणं० ? गोयमा ! नेरतिया अजीवदव्वे परियादियंति, अजीवदव्वे परियादिइत्ता विय-तेयगकम्मग-सोति दिय जाव फासिदिय जाव आणापाणुतं च निव्वत्तयंति / से तेगट्ठणं गोतमा! एवं बुच्चइ०। [5-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है कि यावत् नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं पाते) ? [5-2 उ.] गौतम ! नरयिक, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके वैक्रिय, तैजस, कार्मणशरीर के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं / हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है। 6. एवं जाव वेमाणिया, नवरं सरीर-इंदिय-जोगा भाणियव्वा जस्स जे अस्थि / [6] इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह हैं कि जिसके जितने शरीर, इन्द्रियां तथा योग हों, उतने यथायोग्य कहने चाहिए। विवेचन-जीवद्रव्य अजीवद्रव्यों का परिभोग करते हैं, क्यों और कैसे ?--जीवद्रव्य सचेतन हैं और अजीवद्रव्य अचेतन हैं, इसलिए जीवद्रव्य, पहले अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं, फिर उनको अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं। यही उनका परिभोग है। अतः जीवद्रव्य या नैरयिकादि विशिष्ट जीवद्रव्य, परिभोक्ता है और अजीवद्रव्य परिभोग्य हैं / इस प्रकार जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों में भोक्तृ-भोग्यभाव है / ' असंख्येय लोक में अनन्त द्रव्यों की स्थिति 7. से नणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणताई दवाइं आगासे भइयव्वाइं? हंता, गोयमा ! असंखेज्जे लोए जाव भइयव्वाई। [7 प्र.] भगवन् ! असंख्य लोकाकाश (लोक) में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं ? [7 उ.] हाँ गौतम ! असंख्यप्रदेशात्मक लोक (लोकाकाश) में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं। 1 (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3206 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 856 Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org