________________ 432] [म्याल्याप्रजप्तिसूत्र (171 उ.] गौतम ! वह निर्गन्थता को छोड़ता है और कषायकुशीलत्व, स्नातकत्व या असंयम को प्राप्त करता है / 172. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! सिणायत्तं जहति; सिद्धिति उवसंपन्जा / दारं 24] / [172 प्र. भगवन् ! स्नातक स्नातकत्व का त्याग करता हुअा क्या छोड़ता है और क्या प्राप्त करता है ? [172 उ.] गौतम ! स्नातक, स्नातकत्व को छोड़ता है और सिद्धिगति को प्राप्त करता है। [चौबीसवाँ द्वार विवेचन-कौन क्या त्यागता है, क्या प्राप्त करता है ? पुलाक पुलाकत्व को छोड़कर उसके तुल्य संयमस्थानों के सद्भाव से कषायकशीलत्व को प्राप्त करता है। इसी प्रकार जिस संयत के जैसे संयमस्थान होते हैं, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, किन्तु कषायकुशील अपने समान संयमस्थानभूत पुलाकादि भावों को प्राप्त करते हैं और अविद्यमान समान संयमस्थान रूप निर्गन्थभाव को प्राप्त करते हैं। निर्ग्रन्थ कषाय कुशीलभाव या स्नातकभाव को प्राप्त करते हैं और स्नातक तो सिद्धगति को ही प्राप्त करते हैं / निर्ग्रन्थ उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी करते हैं। उपशमश्रेणी करने वाले निर्ग्रन्थ श्रेणी से गिरते हुए कषायकशीलता प्राप्त करते हैं और श्रेणी के शिखर पर मरण कर देवरूप से उत्पन्न होते हुए असंयत होते हैं, किन्तु संयतासंयत (देशविरत) नहीं होते। क्योंकि देवों में संयतासंयतत्व नहीं होता / यद्यपि निर्ग्रन्थ श्रेणी से गिरकर संयतासंयत भी होते हैं, परन्तु यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की , क्योंकि श्रेणी से गिर कर वह सीधा संयतासंयत नहीं होता। किन्त कषायकशील होकर संयतासंयत होता है / स्नातक स्नातकत्व को छोड़कर सीधे मोक्ष में हो जाते हैं / पच्चीसवाँ संज्ञाद्वार : पंचविध निन्थों में संज्ञाओं की प्ररूपणा 473. पुलाए णं भंते ! कि सण्णोबउले होज्जा, नोसण्णोवउत्ते होज्जा। गोयमा ! पोसण्णोवउत्ते होज्जा। [173 प्र.] भगवन् ! पुलाक संज्ञोपयुक्त (आहारादि संज्ञायुक्त) होता है अथवा नो-संज्ञोपयुक्त (पाहारादि-संज्ञा से रहित) होता है ? [173 उ.] गौतम ! वह संज्ञोपयुक्त नहीं होता, नोसंज्ञोपयुक्त होता है। 174. बउसे गं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! सन्नोवउत्ते वा होज्जा, नोसण्णोवउत्ते वा होज्जा / |174 प्र.] भगवन ! बकश संज्ञोपयुक्त होता है अथवा नो-संजोपयुक्त होता है ? [174 उ.] गौतम ! वह संज्ञोपयुक्त भी होता है और नो-संज्ञोपयुक्त भी होता है। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 904 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3411-12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org