________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] 10. सेसा जाव अणागारोवउता सत्वे जहा सलेस्सा तहेव भाणियव्वा / [60] शेष सभी यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जीवों का आयुष्यबन्ध सलेश्यी जीवों के समान कहना चाहिए। 61. जहा पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियव्वा, नवरं मणपज्जवनाणी नोसनोवउत्ता य जहा सम्मट्टिी तिरिक्खजोणिया तहेव भाणियन्वा / 95] जिस प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार मनुष्यों (के प्रायुष्यबन्ध) की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि मनःपर्यवज्ञानी और नोसंज्ञोपयुक्त मनुष्यों का प्रायुष्यबन्ध-कथन सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चयोनिक के समान है / 62. अलेस्सा, केवलनाणी, अवेदका, असायी, प्रजोगी य, एएन एग पि आउयं पकरेंति जहा प्रोहिया जीवा, सेसं तहेव / [92/ अलेश्यी, केवलज्ञानी, अवेदी, अकषायी और अयोगी, ये औधिक जीवों के समान किसी भी प्रकार का आयुष्यबन्ध नहीं करते / शेष सब पूर्ववत् है / 63. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [93] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों का (आयुष्यबन्ध) कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए / ___ विवेचन-क्रियावादी प्रादि नैरयिकों का प्रायुष्यबन्ध नारकभव के स्वभाव के कारण क्रियावादी नै रयिक नरकायु और देवायु का बन्ध नहीं करते तथा क्रियावादी होने के कारण वे तिर्यञ्चायु भी नहीं बांधते / वे एकमात्र मनुष्यायु का बन्ध करते हैं। प्रक्रियावादी आदि तीनों समवसरणों के नैरयिक जीव सभी स्थानों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का बन्ध करते हैं / सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरपिक अज्ञानवादी और विनयवादी ही होते हैं। वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान में रहते हुए किसी भी प्रकार का अायुष्य नहीं बांधते, क्योंकि सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है। पृथ्वीकायिकों का तेजोलेश्या में प्रायुष्यबन्ध क्यों नहीं ? पृथ्वीकायिक जीवों में अपर्याप्त अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पूर्व ही तेजोलेश्या होती है और वे इन्द्रियपर्याप्ति पूरी होने पर ही परभव का आयुष्य बांधते हैं। अतएव तेजोलेश्या के अभाव में ही उनके पायुष्य का बन्ध होता है, तेजोलेश्या के रहते नहीं। इसीलिए कहा गया है—'तेउलेस्साए न कि पि पकरेंति / / द्वीन्द्रियादि जीवों में सम्यक्त्व और शान के रहते आयुष्यबन्ध क्यों नहीं ? द्वीन्द्रिय आदि जीवों म्यक्त्व होने से उनमें सम्यक्त्व और ज्ञान तो होता है, किन्तु उनका काल अत्यल्प होने से उतने समय में प्रायष्य का बन्ध संभव नहीं है। इसीलिए कहा गया है इनमें सम्यक्त्व और ज्ञान के रहते एक भी प्रकार का प्रायुष्यबन्ध नहीं होता। सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियतियंञ्च कव और कौन-सा प्रायुष्यबन्ध करते हैं ? जब सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च कृष्ण प्रादि अशुभ लेश्या के परिणाम वाले होते हैं, तब किसी भी प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org