________________ बिइए बेइंदियमहाजुम्मसए : पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक 1. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मबंदिया णं भंते ! कतो उबवज्जति ? एवं चेव / कण्हलेस्सेसु वि एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं सयं, नवरं लेसा, संचिगुणा' जहा एगिदियकण्हलेस्साणं / // छत्तीसइमे सए : बिइए बेइंदियमहाजुम्मसए पढमाइ-एक्कारस-पज्जता उद्देसगा समत्ता // // बितियं बंदियसयं समत्तं // 36-2 // [1 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्ववत् जानना चाहिए। कृष्णलेश्यी जीवों का भी शतक ग्यारह उद्देशक-युक्त जानना चाहिए / विशेष यह है कि इनकी लेश्या और संचिट्ठणा (कास्थिति) स्थिति (भवस्थिति), कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के समान होती है / विवेचन-प्रस्तुत ग्यारह उद्देशकों में कृष्णलेश्याविशिष्ट द्वीन्द्रियमहायुग्म जीवों के सम्बन्ध में लेश्या, कायस्थिति आदि के अतिरिक्त शेष सर्वकथन एकेन्द्रियजीवों के समान बताया गया है। / / छत्तीसवां शतक : द्वितीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के ग्यारह उद्देशक सम्पूर्ण // / द्वितीय द्वीन्द्रियशतक समाप्त / / 1. किमी किसी प्रति में संचिढणा' के ग्रागे "ठिई' शब्द मिलता है। वहाँ स्थिति' से भवस्थिति अर्थ समझना चाहिए। –सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org