________________ चरत्थे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा चतुर्थ संज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक कापोतलेश्यी संजीपंचेन्द्रिय को वक्तव्यता 1. एवं काउलेस्ससयं पि, नवरं संचिट्टणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाई पलियोवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई; एवं ठिती वि / एवं तिसु वि उद्देसएसु / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 4 // 1-11 // // चत्तालीसइमें सते चउत्थं सयं // 40-4 // {2} इसी प्रकार कापोतलेश्याशतक के विपय में समझना चाहिए। विशेष-संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार है तथा इसी प्रकार तीनों उद्देशक जानना / शेष पूर्ववत् / - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-तृतीय नरक पृथ्वी के ऊपरी प्रतर में रहने वाले नारक की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम की है और वहीं तक कापोतलेश्या है / इसलिए पूर्वोक्त स्थिति ही युक्तियुक्त है। / चालीसवां शतक : चतुर्थ अवान्तरशतक सम्पूर्ण / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org