________________ [स्याल्याप्रप्तिसूत्र भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भंते ! यह इच्छित (इष्ट) है, भंते ! यह प्रतीच्छित--विशेष रूप से इच्छित (स्वीकृत) है, भंते ! यह इच्छित-प्रतीच्छित है, भगवन् ! यह अर्थ सत्य है, जैसा आप कहते हैं, क्योंकि अरहन्त भगवन्त अपूर्व (अथवा पवित्र) वचन वाले होते हैं', यों कहकर वे श्रमण भगवान् महावीर को पुनः वन्दन-नमस्कार करते हैं। तत्पश्चात् तप और संयम से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। विवेचन-अपुववयणा : भावार्थ-अरिहन्त भगवन्तों की वाणी अपूर्व होती है। - // इकतालीसवां शतक : एकसौ उनहत्तर से एकसौ छियानवे उद्देशक पर्यन्त समाप्त / / // इकतालीसवाँ राशियुग्मशतक सम्पूर्ण / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org