Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 2965
________________ भगवतीसूत्र का उपसंहार] [767 एवं बेंदियाणं बारस [36], तेंदियाणं बारस [37], चरिदियाणं बारस [38], असन्निपंचेंदियाणं बारस [36], सनिपंचेंदियमहाजुम्मसयाई एक्कवीसं [40], एगदिवसेणं उद्दिसिज्जंति / ___ इसी प्रकार द्वीन्द्रिय के बारह (36), त्रीन्द्रिय के बारह (37), चतुरिन्द्रिय के बारह (38), असंज्ञीपंचेन्द्रिय के बारह (36) शतकों का तथा इक्कीस संजीपंचेन्द्रियमहायुग्म शतकों (40) का वाचन एक-एक दिन में करना चाहिए / रासोजुम्मसयं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ / [41] / इकतालीसवें राशियुग्म शतक की वाचना भी एक दिन में दी जानी चाहिए [41] / विसियअरविद करा नासितिमिरा सुयाहिया देवी। मझ पि देउ मेहं बहविब्रहणमंसिया णिच्चं // 1 // जिसके हाथ में विकसित कमल है, जिसने अन्नानान्धकार का नाश किया है, जिसको बुध (पण्डित) और विबुधों (देवों) ने सदा नमस्कार किया है, ऐसी श्रुताधिष्ठात्री देवी मुझे भी बुद्धि (मेधा) प्रदान करे।।१।। सुयदेवयाए णमिमो जीए पसाएण सिक्खियं नाणं / अण्णं पवयणदेवी संतिकरी तं नमसामि // 2 // जिसकी कृपा से ज्ञान सीखा है, उम श्रुतदेवता को प्रणाम करता हूँ तथा शान्ति करने वाली उस प्रबचनदेवी को नमस्कार करता हूँ / / 2 / / सुयदेवया य जक्खो कुभधरो बंभसंति वेरोट्टा। विज्जा य अंतहुंडी देउ अविग्धं लिहंतस्स // 1 // // समत्ता य भगवती। // वियाह-पण्णत्तिसुत्तं समत्तं // श्रुतदेवता, कुम्भधर यक्ष, ब्रह्मगान्ति, वैरोटयादेवी, विद्या और अन्नहंडी, लेखक के लिए अविघ्न (निविघ्नता) प्रदान करे / / 3 // विवेचन-उपसंहार-गत विषय-(१) शतकादि का परिमाण-सर्वप्रथम सू. 1 और 2 में भगवतीसूत्र के शतक, उद्देशक, पद और भावों की संख्या बताई है। शतकों के प्रारम्भ में अंकित संग्रहणीगाथाओं के अनुसार तो भगवतीसूत्र के कुल उद्देशकों की संख्या 1623 ही होती है, किन्तु यहाँ इस गाथा में 1925 बताई है। 20 वे शतक के 12 उद्देशक गिने जाते हैं, किन्तु प्रस्तुत वाचना में पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय इन तीनों का एक सम्मिलित (छठा) उद्देशक ही उपलब्ध होने से दस ही उद्देशक होते हैं / इस प्रकार दो उद्देशक कम हो जाने से गणनानुसार उद्देशकों की संख्या 1623 होती है। शतकों का परिमाण इस प्रकार है-पहले से लेकर बत्तीसवें शतक तक किसी भी शतक में अवान्तर शतक नहीं है। तेतीसवें शतक से लेकर उनतालीसवें शतक तक सात शतकों में प्रत्येक में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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