________________ चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक राशियुग्म-कल्योजराशिरूप चौबीस दण्डकों में उपपातादि प्ररूपणा 1. रासीजुम्मकलियोगनेरयिया गं भंते ! कओ उववज्जत्ति ? एवं चेव, नवरं परिमाणं एक्को वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा० / [1 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म-कल्योजराशि नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! सब कथन पूर्ववत् है / विशेष इनका परिमाण-~-ये एक, पांच, नौ, तेरह संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 2. [1] ते णं भंते ! जोया जं समयं कलियोगा तं समयं कडजम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा? नो इणछे समठे। [2-1 प्र.] भगवन् ! वे जीव जिस समय कल्योज होते हैं, क्या उस समय कृतयुग्म होते हैं अथवा जिस समय कृतयुग्म होते हैं, क्या उस समय कल्योज होते हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] एवं तेयोयेण वि समं / [2-2] इसी प्रकार ज्योज के साथ कृतयुग्मादि-सम्बन्धी कथन भी जानना चाहिए। [3] एवं दावरजुम्मेण वि समं / [2-3] द्वापरयुग्म के साथ कृतयुग्मादि-सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 3. सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ! // इकचतालोसइमे सए : चउत्थो उद्देसनो समत्तो॥ [3] शेष सब प्रथम उद्देशक के समान यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-राशियुग्म-कल्योजराशिरूप जीवों की उत्पत्ति प्रादि का कथन प्रस्तुत 3 सूत्रों में राशियुग्म एवं कल्योजरूप जीवों का उत्पत्ति-सम्बन्धी अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। / / इकतालीसवाँ शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org