________________ पंचमाइअट्ठमउद्देसगपज्जंता उद्देसगा पाँचवें से पाठवें उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्यावाले राशियुग्म में कृतयुग्मादिरूप चौबीस दण्डकों में उपपातादि-प्ररूपणा 1. कण्हलेस्सरासोजुम्मकडजुम्मनेरइया गं भंते ! कतो उबवज्जति ? 0 उववातो जहा धूमप्पभाए / सेसं जहा पढमुद्देसए। [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म-कृतयुग्मराशिरूप नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] इनका उपपात धूमप्रभापृथ्वी (के नैरयिक) के समान है। शेष सब कथन प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए / 2. असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव वाणमंतराणं / [2] असुरकुमारों के विषय में भी इसी प्रकार यावत् वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए / 3. मणुस्साण वि जहेव नेरइयाणं / प्राय [? अ] जसं उवजीवति / अलेस्सा, प्रकिरिया, तेणेव भवग्गणेणं सिझंति एवं न भाणियध्वं / सेसं जहा पढमुद्देसए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41-5 // [3] मनुष्यों के विषय में भी नरयिकों के समान कथन करना चाहिए / वे आत्म(अ)यशपूर्वक जीवन-निर्वाह करते हैं। (इनके विषय में) अलेश्यी, अक्रिय तथा उसी भव में सिद्ध होने का कथन नहीं करना चाहिए / शेष सब प्रथमोद्देशक के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 41-5 / / 4. कण्हलेस्सतेयोएहि वि एवं चेव उद्देसओ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 41-6 // [4] कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म में त्र्योजराशि नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है // 41-6 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 5. कण्हलेस्सदावरजुम्मे हि वि एवं चेव उद्देसनो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41-7 // [5] कृष्णलेश्या वाले द्वापरयुग्मराशि नरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है।॥४१-७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org