________________ पंचमे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा पंचम संजीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक तेजोलेश्यो संज्ञोपंचेन्द्रिय को वक्तव्यता 1. एवं तेउलेस्सेसु वि सयं / नवरं संचिट्टणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई पलियोवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई; एवं ठिती वि, नवरं नोसण्णोवउत्ता वा। एवं तिसु वि गम(? उद्देस) एसु / सेस तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥४०॥५॥१-११॥ ॥चत्तालीसइमे सते पंचमं सयं / / 40-5 // [1] तेजोलेश्याविशिष्ट (सं. पं.) का शतक भी इसी प्रकार है / विशेष यह है कि संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम है / स्थिति भी इसी प्रकार है। किन्तु यहाँ नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार तीनों उद्देशकों के विषय में समझना चाहिए / शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन --यहाँ तेजोलेश्या विशिष्ट जीवों की जो उत्कृष्ट स्थिति कही है, वह ईशान देवलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा है। // चालीसवां शतक :पंचम अवान्तरशतक सम्पूर्ण / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org