________________ नवमाइचोद्दसमपज्जता सया : पत्तेयं एक्कारस उद्देसगा नौवें से चौदहवें शतक पर्यन्त : प्रत्येक के ग्यारह उद्देशक 1. कण्हलेस्सभवसिद्धियक उजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! को उवबज्जति ? . एवं एएणं अभिलावेणं जहा प्रोहियकण्हलेस्ससयं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 406 / 1-11 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी-भव सिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म राशियुक्त संज्ञीपचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी औधिकशतक के अनुसार इसी अभिलाप से यह शतक कहना / 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 2. एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि सतं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 // 40 / 10 / 1-11 // [2] नील लेश्यीभवसिद्धिकशतक भी इसी प्रकार जानना। 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 3. एवं जहा प्रोहियाणि सन्निपंचेंदियाणं सत्त सथाणि भणियाणि एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायवाणि, नवरं सत्तसु वि सएसु 'सध्वपाणा जाव णो इणठे समठे। सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते !0 / // भवसिद्धियसया समत्ता // 40-8-14 // // चत्तालीसइमे सते चोद्दसमं सयं समत्तं // 40-14 // [3] संजीपंचेन्द्रिय जीवों के सात औधिकशतक कहे हैं, उसी प्रकार भवसिद्धिक सम्बन्धी सातों शतक कहने चाहिए / विशेष यह है-- [प्र.] सातों शतकों में क्या इससे पूर्व सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्त्व उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन--प्रस्तुत में कृष्णले श्यी भवसिद्धिक आदि नौवें से चौदहवें शतक तक का औधिक अतिदेश पूर्वक कथन किया गया है / // चालीसवां शतक : नौवें से चौदहवें अवान्तरशतक तक सम्पूर्ण / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org