Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 2922
________________ 724] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसुत्र एकेन्द्रिय जीवों के समान है / वे विरत, अविरत या विरताविरत होते हैं। वे सक्रिय (क्रिया वाले) होते हैं, अक्रिय (क्रियारहित) नहीं। 2. ते णं भंते ! जीवा कि सत्तविहबंधगा, अविहबंधगा, छविहबंधगा, एगविहबंधगा ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा। [2 प्र.] भगवन् ! वे जीव सप्तविध- (कर्म-)बन्धक, अष्टविधकर्मबन्धक, षड्विधकर्मबन्धक या एकविधकर्मबन्धक होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे सप्तविधकर्मबन्धक भी होते हैं, यावत् एकविधकर्मबन्धक भी होते हैं। 3. ते णं भंते ! जीवा कि पाहारसम्णोवउत्ता जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता, नोसण्णोवउत्ता ? गोयमा ! पाहारसन्नोवउत्ता वा जाव नोसन्नोवउत्ता वा। [3 प्र.] भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं अथवा वे नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! पाहारसंज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं / 4. सम्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा / कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा, अकसायी वा। इस्थिवेयगा वा, पुरिसवेयगा वा, नपुसगवेयगा वा, अवेदगा वा / इस्थिवेदबंधगा वा, पुरिसवेयबंधगा वा, नपुसगवेदबंधगा वा, प्रबंधगा वा। सण्णी, नो असण्णी। सइंदिया, नो अणिदिया / संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं सागरोक्मसयपुहत्तं सातिरेगं / आहारो तहेव जाव नियमं छदिसि / ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। छ समुग्धाता आदिल्लगा। मारणंतियसमुग्धातेणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / उत्वट्टणा जहेव उववातो, न कत्थइ पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाण त्ति / [4] इसी प्रकार सर्वत्र प्रश्नोत्तर की योजना करनी चाहिए। (यथा-) वे क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी होते हैं। वे स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक या अवेदक होते हैं। वे स्त्रीवेद-बन्धक, पुरुषवेद-बन्धक, नपुसकवेद-बन्धक या प्रबन्धक होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। इनका संचिट्ठणाकाल (संस्थितिकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम-शतपृथक्त्व होता है। इनका आहार पूर्ववत् यावत् नियम से छह दिशा का होता है। इनकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इनमें प्रथम के छह समुद्धात पाये जाते हैं। ये मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत भी मरते हैं। इनकी उद्वर्तना का कथन उपपात के समान है। किसी भी विषय में निषेध यावत् अनुत्तरविमान तक, नहीं है। 5. अह भंते ! सन्वपाणा? जाव अणंतखुत्तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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