________________ 726] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8] यहाँ (इस प्रथम अवान्तर शतक में) भी ग्यारह उद्देशक पूर्ववत् हैं। प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक एक समान हैं और शेष पाठ उद्देशक एक. समान हैं तथा चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में कोई विशेष बात नहीं है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 13-11 // विवेचन-विशिष्टसंजीपंचेन्द्रिय जीवों के विषय में-उपशान्तमोहादि जीव वेदनीय के अतिरिक्त 7 कर्मों के प्रबन्धक होते हैं। शेष जीव यथासम्भव बन्धक होते हैं। केवलो अवस्था से पूर्व सभी संज्ञी जीव संज्ञीपंचेन्द्रिय कहलाते हैं और वहाँ तक वे अवश्य ही वेदनीय कर्म के बन्धकही होते है, प्रबन्धक नहीं। इनमें से सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान तक सज्ञापचेन्द्रिय मोहनायकम के वेदक होते हैं तथा उपशान्तमोहादि जीव अवेदक होते हैं / उपशान्तमोहादि जो संजीपंचेन्द्रिय होते हैं, वे मोहनीय के अतिरिक्त सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं। यद्यपि केवलज्ञानी चार अघाती कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, परन्तु वे इन्द्रियों के उपयोग-रहित होने से पंचेन्द्रिय और संजी नहीं कहलाते, वे अनिन्द्रिय और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं। सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक जीव मोहनीयकर्म के उदय वाले होते हैं और उपशान्तमोहादिविशिष्ट जीव अनुदय वाले होते हैं। वेदकत्व और उदय, इन दोनों में अन्तर यह है कि अनुक्रम से और उदीरणाकरणी के द्वारा उदय में आए हुए (फलोन्मुख) कर्म का अनुभव करना वेदकत्व है और केवल अनुक्रम से उदय में आए हुए कर्म का अनुभव करना उदय है / अकषाय अर्थात् क्षीणमोहगुणस्थान तक सभी संजीपंचेन्द्रिय नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं और शेष छह कर्मप्रकृतियों के यथासम्भव उदीरक और अनुदीरक होते हैं। उदीरणा का क्रम इस प्रकार है-छठे प्रमत्त गुणस्थान तक सामान्य रूप से सभी जीव आठों कर्मों के उदीरक होते हैं। जब आयुष्य प्रावलिका मात्र शेष रह जाता है, तब वे प्रायु के अतिरिक्त सात कर्मों के उदीरक होते हैं / अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानवर्ती जीव वेदनीय और प्राय के अतिरिक्त छह कर्मों के उदीरक होते हैं। जब सूक्ष्मसम्पराय आवलिकामात्र शेष रह जाता है तब मोहनीय, वेदनीय और आयु के अतिरिक्त पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। उपशान्तमोहगूणस्थानवी जीव इन्हीं पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव का काल आवलिकामात्र शेष रहता है, तब वे नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं। सयोगीगुणस्थानवर्ती जीव भी इसी प्रकार उदीरक होते हैं और अयोगीगुणस्थानवी जीव अनुदीरक होते हैं। कृतय गम-कृतयुग्मराशि वाले संजीपंचेन्द्रिय जीवों का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय का है, क्योंकि एक समय के बाद संख्यान्तर होना संभव है और उत्कृष्ट सातिरेक-सागरोपम-शत-पृथक्त्व है, क्योंकि इसके बाद संजीपंचेन्द्रिय नहीं होते। संज्ञीपंचेन्द्रियों में पहले के छह समुद्घात होते हैं / सातवां केवलीसमुद्घात तो केवलज्ञानियों में होता है और वे अनिन्द्रिय होते हैं।' चालीसा शतक : प्रथम प्रवान्तरशतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 970 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3767-3768 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org