________________ पढमे बेइंदियमहाजुम्मसए : बिइओ उद्देसओ प्रथम द्वीन्द्रिय शतक : द्वितीय उद्देशक एकेन्द्रिय महायुग्मशतक के अतिदेशपूर्वक प्रथमसमय-द्वीन्द्रियमहायुग्मवक्तव्यता 1. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मāदिया णं भंते ! कतो उववज्जति ? एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमसमयुद्देसए दस नाणत्ताई ताई चेव दस इह वि / एक्कारसम इमं नाणतं-नो मणजोगी, नो बइजोगी, कायजोगी। सेसं जहा एगिदियाणं चेव पढमुद्देसए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। छतीसइमे सए : पढम बेइंदियमहाजुम्मसए : बिइप्रो उद्देसनो समत्तो // 36-112 // [1 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार एकेन्द्रियमहायुग्मों का प्रथमसमय-सम्बन्धी उद्देशक कहा गया है, उसी प्रकार इनके विषय में भी जानना / वहाँ दस बातों का अन्तर बताया है, यहाँ भी उन दस वातों का अन्तर समझना / ग्यारहवीं विशेषता यह है कि ये मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, सिर्फ काययोगी होते हैं / शेष सब बातें एकेन्द्रियमहायुग्मों के प्रथम उद्देशक के समान जानना / _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-प्रस्तुत द्वितीय उद्देशक में प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रियमहायुग्म-सम्बन्धी वतीस द्वारों को प्ररूपणा एकेन्द्रियमहायुग्म के प्रथमसमय-सम्बन्धी उद्देशक के अतिदेशपूर्वक को गई है। एकेन्द्रियमहायुग्म में उक्त 10 बातों का अन्तर इनमें भी है। ग्यारहवीं विशेषता है ये मात्र काययोगी होते हैं। // छत्तीसवें शतक में प्रथम द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org