________________ बिइए एगिदियसए : बिईओ उद्देसओ द्वितीय एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय भेद-प्रभेद, उनकी कर्म प्रकृतियाँ, बंध तथा बेदन को प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! अणंतरोक्वनगा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिदिया० / एवं एएणं प्रभिलावेणं तहेव दुपनो भेदो जाव वणस्सतिकाइय ति। [1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नककृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपत्रककृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव (पूर्ववत्) पांच प्रकार के कहे हैं / इस अभिलाप से (अ. कृ. एके. पृथ्वीकायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त (पूर्ववत् प्रत्येक के) दो-दो भेद होते हैं। 2. अणंतरोववनगाहलेस्ससुहमपुढ विकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीयो पन्नत्तानो ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा प्रोहिओ प्रणतरोववनगाणं उद्देसनो तहेव जाव बेति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेतीसइमे सए : बिइए एगिदियसए : बिइओ उद्देसनो समत्तो // 33-2-2 // [2 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? _ [2 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक अनन्तरोपपन्नक के अनुसार यावत्-'वेदते हैं', यहाँ तक समग्र कथन कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-औधिक अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार---यहाँ कृष्णलेश्याविशिष्ट अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के मूल पांच भेद तथा पाठ कर्मप्रकृतियाँ, बन्ध तथा वेदन का निरूपण किया गया है / अन्तर केवल इतना ही है कि यहाँ पृथ्वीकायिक आदि पांचों के चार भेद के बदले केवल दो भेद ही होते हैं-सूक्ष्म और बादर ! // तेतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org