________________ चौतीसवां शतक / उद्देशक 1] [675 [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति अत्यंगइया तुल्लद्वितीया जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? ___ गोयमा ! एगिदिया चउन्विहा पनत्ता, तं जहा-प्रत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, प्रत्येगइया समाउया विसमोववनगा, प्रत्येगइया विसमाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववनगा / तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते गं तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते णं वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववानगा ते णं वेमायद्वितीया बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / से तेणठेणं गोयमा ! जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ / ॥चोतीसइमं सयं : पढमे अवांतरसए, पढमो उद्देसमो समत्तो // 34 // 11 // [76.2 प्र.) भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि कई तुल्यस्थिति वालेयावत् भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [76-2 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) कई जीव समान आयु वाले और साथ उत्पन्न हए होते हैं, (2) कई जीव समान प्रायू वाले और विषम उत्पन्न हए होते हैं, (3) कई विषम प्रायु वाले और साथ उत्पन्न हुए होते हैं तथा (4) कितने ही जीव विषम प्रायु वाले और विषम उत्पन्न हुए होते हैं। इनमें से जो समान प्रायु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले तथा तुल्य एवं विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्रा विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। जो जीव विषम आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो विषम आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले, विमात्रा-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं / इसी कारण से यह कहा गया है कि यावत् विमात्रा-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्वस्थान, अविशेष और नानात्व-बादर पृथ्वोकायादि जीव जिस स्थान पर रहता है, वह उसका 'स्वस्थान' कहलाता है। जहाँ पर्याप्तक-अपर्याप्तक के भेद की विवक्षा न हो, वह अविशेष कहलाता है / जिनमें परस्पर नानात्व = अन्तर न हो, उन्हें अनानात्व कहते हैं। वैक्रियसमुद्घात---एकेन्द्रिय में जो वैक्रियसमुद्घात कहा है, वह वायुकाय की अपेक्षा से है। स्थिति और उत्पत्ति की भंगचतुष्टयो-स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रिय के 4 भंग कहे हैं और इन्हीं 4 भंगों की अपेक्षा चार प्रकार का कर्मबन्ध कहा है।' // चौतीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक का प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ.वृत्ति, पत्र 961 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3711 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org