________________ पंतीसवां शतक : उद्देशक 1) 22) इस प्रकार इन सोलह महायुग्मों का एक ही प्रकार का कथन (गमक) समझना चाहिए / किन्तु इनके परिमाण में भिन्नता है / जैसे कि-त्र्योजद्वापरयुग्म का प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण चौदह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। योजकल्योज का प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण है-तेरह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त / द्वापरयुग्मकृतयुग्म का उत्पाद-परिमाण आठ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है / द्वापरयुग्मयोज का प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण ग्यारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म में प्रतिसमय में दस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं / द्वापरयुग्मकल्योज में प्रति समय उत्पाद-परिमाण नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। कल्योजकृतयुग्म में प्रति समय उत्पाद-परिमाण चार, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है / कल्योजयोज में प्रतिसमय उत्पत्ति-परिमाण सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है और कल्योजद्वापर यग्म में प्रतिसमय में उत्पाद का परिमाण छह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। 23. कलियोगलियोगएगिदिया णं भंते ! कसो उववज्जति ? उववातो तहेव / परिमाणं पंच वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति सेसं तहेव (सु० 4-14) जाव अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // पणतीसइमे सए : पढमे एगिदिय-महाजुम्मसए : पढमो उद्देसनो समत्तो / / 35 // 11 // 23 प्र. भगव ! कल्योज-कल्योजराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? 23 उ.] गौतम ! इनका उपपात भी पूर्ववत् कहना चाहिए / इनका प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण पांच, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। शेष सब पूर्ववत् (सू. 4 से 14 तक के अनुसार, यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—निष्कर्ष इस प्रकरण में कृतयुग्म-त्र्योजरूप एक न्द्रिय से लेकर कल्योज-कल्योज एकेन्द्रिय तक के जीवों के उत्पाद आदि का कथन पूर्वोक्त कृतयुग्म-कृमयुग्म एकेन्द्रिय के (स. 4 से 14 तक के अनुसार) अतिदेशपूर्वक किया गया है / किन्तु इन सोलह ही महायुग्मों के प्रतिसमयोत्पत्ति के जघन्य परिमाण में अत्तर है, जिसे मूलपाठ में स्पष्ट कर दिया गया है।' . / पैतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपणत्तिसुत्तं भा. 3 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 1145-46 .-. - - -.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org