Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 2891
________________ पैतीसवां शतक : उद्देशक 1] पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न हों तब उनका संवेध हो सकता है, किन्तु वहां से उनका निकलना असम्भव होने से सवेध नहीं हो सकता ! यहाँ जो सोलह कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप उत्पाद कहा है, वह प्रसकाय से आकर उत्पन्न होने वाले जीव की अपेक्षा से है, वह वास्तविक उत्पाद नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय में प्रतिसमय अनन्त जीवों का उत्पाद होता है। इसलिए यहाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा से संवेध असम्भवित होने से उसका निषेध किया गया है।' कृतयुग्म-त्र्योज-एकेन्द्रिय से लेकर कल्योज-कल्योज-एकेन्द्रिय तक का उत्पादादि निरूपण 15. कडजुम्मतेयोयएमि दिया णं भंते ! को उववज्जति ? उववातो तहेव। |15 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-त्र्योजराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! उनका उपपात पूर्ववत् कहना चाहिए / 16. ते णं भंते ! जीवा एगसमए० पुच्छा / गोयमा ! एक्कणवीसा वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उक्वज्जति / सेसं जहा कडजुम्मकडजुम्माणं (सु. 4--14) जाव अणंतखुत्तो। [16 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [16 उ.] गौतम ! ये एक समय में उन्नीस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् कृतयुग्म-कृतयुग्मरा शिरूप एकेन्द्रिय के पाठ (सू. 4 से 14 तक) के अनुसार यावत् पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 17. कडजुम्मदावर जुम्मएगिदिया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? उववातो तहेव। [17 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-द्वापरयुग्मरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / {17 उ.] गौतम ! इनका उपपात पूर्ववत् जानना चाहिए / 18. ते णं भंते ! एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा ! अद्वारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, प्रणेता वा उववज्जति / सेसं तहेव (सु० 4-14) जाव अणंतखुत्तो। [18 प्र. भगवन् ! वे (पूर्वोक्त एकेन्द्रिय) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [18 उ.] गौतम ! वे एक समय में अठारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं / शेष सब पूर्ववत् (सू. 4 से 14 तक कृतयुग्मएकेन्द्रिय के अनुसार) यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 19. कडजुम्मकलियोगएगिदिया णं भंते ! कओ उवय ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 967 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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