________________ पंतीसवां शतक : उद्देशक 1-11] 7. पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा पढमसमयउद्देसनो, नवरं [7 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमय-कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! इसका समग्र कथन प्रथमसमयउद्देशक (अवान्तर शतक 1 उ. 2) के समान जानना / विशेष यह है 8. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? हंता, कण्हलेस्सा। सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 35 // 2 // 2 // [8 प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [- उ.] हाँ, गौतम! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। शेष समग्र कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 352 / 2 / / 6. एवं जहा प्रोहियसते एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा / पढमो, ततिओ, पंचमो य सरिसगमा / सेसा अट्ट वि सरिसगमा, नवरं० चउत्थ'-अट्ठमदसमेसु उववातो नस्थि देवस्स। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥३५२॥३-११ / // पंचतीसइमे सते : बितियं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं // 35.2 // [6] औधिकशतक के ग्यारह उद्देशकों के समान कृष्णलेश्याविशिष्ट (एकेन्द्रिय) शतक के भी ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए / प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक के पाठ एक समान हैं / शेष पाठ उद्देशकों के पाठ सदृश हैं / किन्तु इनमें से चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में देवों की उत्पत्ति का कथन नहीं करना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 35 / 2 / 3-11 / / // द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त // // पैंतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // 1. यहाँ भी 'चउत्थ' के पश्चात 'छद्र पाठ अधिक मिलता है। -सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org