________________ चौतीसर्वा शतक : उद्देशक 2] [677 4. अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीनो पन्नत्तानो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्तानो। एवं जहा एगिदियसतेसु अणंतरोववन्नगउद्देसए (स० 33-1-2 सु० 4-6) तहेव पन्नत्ताओ, तहेव (स० 33-1-2 सु० 7-8) बंधेति, तहेव (स० 31-1-2 सु०६) वेदेति जाव अणंतरोववनगा बायरवणस्सतिकाइया। [4 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [4 उ.] गौतम ! उनके पाठ कर्म प्रकृतियाँ कही हैं, इत्यादि एकेन्द्रियशतक में उक्त अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के समान यावत् उसी प्रकार बांधते हैं और वेदते हैं, यहाँ तक यावत् इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानना चाहिए। 5. अणंतरोववन्नगएगिदिया णं भंते ! को उवधज्जति ? जहेव मोहिए उद्देसनो भणियो। [5 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! यह भी प्रोधिक उद्देशक के अनुसार कहना चाहिए। 6. अणंतरोववन्नगएगिदियाणं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा ! दोन्नि समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्धाए य कसायसमुग्घाए य / [6 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [6 उ.] गौतम ! उनके दो समुद्घात कहे हैं / यथा-वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात / 7. [1] अणंतरोववन्नगगिदिया गं भंते ! कि तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति० पुच्छा तहेव / / __ गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या तुल्यस्थिति वाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव परस्पर तुल्य, विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / / [7-1 उ.] गौतम ! कई तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और कई तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव विमान-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं / _ [2] से केणठेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-प्रत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, प्रत्येगइया समाउया विसमोववन्नगा। तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते णं तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति। तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / से तेणछेणं जाव बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org