________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] [673 नहीं होते, किन्तु सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि पांचों होते हैं तथा बादर वायुकाय भी होता है। इन छह के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से बारह भेद होते हैं / लोक के पूर्वीय-चरमान्त से पूर्व-चरमान्त में ही उत्पन्न होने वाले जीव की एक समय से लेकर चार समय तक की विग्रहगति होती है, क्योंकि उसमें अनुश्रेणी और विश्रेणी दोनों गतियाँ होती हैं / पूर्वचरमान्त से दक्षिण-चरमान्त में उत्पन्न होने बाले जीव की दो, तीन या चार समय की ही विग्रहगति होती है। वहाँ अनुश्रेणी न होने से एक समय की विग्रहगति नहीं होती / अतएव विश्रेणीगमन में दो प्रादि समय की विग्रहगति का कथन किया गया है।' एकेन्द्रिय जीवों में स्थान-कर्मप्रकृतिबन्ध-वेदन, उपपात समुद्घातादि की अपेक्षा प्ररूपणा 66. कहिं णं भंते ! बायरपुढविकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपए जाव सुहुमवणस्सतिकाइया जे य पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्ना पण्णत्ता समणाउसो ! [66 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [66 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा पाठ पृथ्वियाँ हैं, इत्यादि सब कथन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार यावत् पर्याप्त और अपर्याप्त सभी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के हैं / इनमें कुछ भी विशेषता या भिन्नता नहीं है। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (सूक्ष्म) सर्व लोक में व्याप्त हैं। 70. अपज्जत्तसहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडोश्रो पन्नत्ताओ? गोयमा ! प्रट्ठ कम्मप्पगडीयो पन्नताओ, तं जहा-नाणावरणिज्जं नाव अंतराइयं / एवं चउक्कएणं भेएणं जहेव एगिदियसएसु (स० 33-1-1 सु०७-११) जाव बायरवणस्सतिकाइयाणं पज्जत्तगाणं। [70 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [70 उ.] गौतम ! पाठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं। यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। इस प्रकार प्रत्येक के चार-चार भेदों से एकेन्द्रिय शतक के (33 श. 1-1, 7-11 सू. के) अनुसार यावत्-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए। 71. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्मपगडीयो बंधंति ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्टविहबंधगा वि जहा एगिदियसएसु (स० 33-1-1 सु० 12-14) जाव पज्जत्तबायरवणस्सतिकाइया। [71 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [71 उ.] गौतम ! वे सात या आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं / यहाँ भी एकेन्द्रियशतक के अनुसार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक का कथन करना चाहिए। 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 960-961 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3005-3706 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org