________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] [671 उपपात का कथन किया, उसी प्रकार पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उपपात का कथन करना चाहिए। 63. अपज्जत्तसुहमपुढधिकाइए णं भंते ! लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तसहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए? एवं जहा पुरथिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चेव उववालियो तहा दाहिणिल्ले समोहो दाहिणिल्ले चैव उववातेयम्वो। तहेव निरवसेसं जाव सुहुमवणस्सतिकाइयो पज्जत्तनो सुहुमवणस्सइकाइएसु चेव पज्जत्तएस दाहिणिल्ले चरिमंते उबयातिप्रो।। [63 प्र. भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव लोक के दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके लोक के दक्षिण-चरमान्त में ही अपर्याप्त सक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [63 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके पूर्वीय-चरमान्त में ही उपपात का कथन किया, उसी प्रकार दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके दक्षिण-चरमान्त में ही उत्पन्न होने योग्य का उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक का, पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकाथिकों में दक्षिण-चरमान्त तक उपपात कहना चाहिए। 64. एवं दाहिणिल्ले समोहयो पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते उववातेयचो, नवरं दुसमइयतिसमइय-च उसमइयो विग्गहो / सेसं तहेव / 664] इसी प्रकार दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम-चरमान्त में उपपात का कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि इनमें दो, तीन या चार समय की विग्रहगति होती है / शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। 65. एवं दाहिणिल्ले समोहयओ उत्तरिल्ले उबवातेयत्रो जहेव सटाणे तहेव एगसमइयदुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो। [65] जिस प्रकार स्वस्थान में उपपात का कथन किया, उसी प्रकार दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उपपात का तथा एक, दो, तीन या चार समय की विग्रहगति का कथन करना चाहिए। 66. पुरथिमिल्ले जहा पच्चस्थिमिल्ले तहेव दुसमइय-तिसमइय-चउसमइय० / 666] पश्चिम-चरमान्त में उपपात के समान पूर्वीय-चरमान्त में भी दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उपपात का कथन करना चाहिए। 67. पच्चस्थिमिल्ले चरिमते समोहताणं पच्चथिमिल्ले चेव चरिमंते उववज्जमाणाणं जहा सट्टाणे। उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एमसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव / पुरथिमिले जहा सटाणे / दाहिणिल्ले एगसमइनो विग्गहो नत्थि, सेसं तं चैव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org