________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] 57. सुहमपुढविकाइयो पज्जत्तओ एवं चेव निरवसेसो बारससु वि ठाणेसु उववायव्यो। [57] पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के उपपात का कथन भी इसी प्रकार पूर्वोक्त बारह स्थानों में करना चाहिए / 58. एवं एएणं गमएणं जाव सुहुमवणस्सतिकाइयो पज्जत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव भाणितव्यो। [58] इसी प्रकार इस गमक (पाठ) से यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक तक पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीवों में उपपात का कथन करना चाहिए। 56. [1] प्रपज्जत्तसहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा दुसमइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जिज्जा / [59-1 प्र.) भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके लोक के दक्षिण-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [59-1 उ.] गौतम ! वह दो समय, तीन समय या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीयो पन्नत्तानो, तं जहा-उज्जुआयता जाव प्रवचकवाला / एगतोयंकाए सेढीए उक्वज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा; दुहतोवंकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुसेदि उववज्जित्तए से णं तिसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा, जे भविए विसेदि उववज्जित्तए से णं चउसमडएणं विम्गहेणं उववज्जेज्जा; से तेणठेणं गोयमा !0 / _ [59.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वह दो समय यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [59-2 उ.] गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ बताई हैं। यथा-ऋज्वायता यावत् ता। यदि वह जीव एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। यदि वह उभयतोवका श्रेणी से एक प्रतर में अनुश्रेणी (समश्रेणी) से उत्पन्न होने योग्य है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि वह विश्रेणी से उत्पन्न होने योग्य है तो चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / हे गौतम ! इसी कारण से मैंने कहा कि वह दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। 60. एवं एएणं गमएणं पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहतो दाहिणिल्ले चरिमंते उववातयन्वो। जाव सहुमवणस्सतिकाइओ पज्जत्तओ सुहुभवणस्सतिकाइएसु पज्जत्तएस चैव, सम्वेसिं दुसमइयो, तिसमहओ, चउसमइओ विग्गही भाणियन्वो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org