________________ चौतीसवां शतक : उदै शक 1) [661 31 प्र. भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जाव शक राप्रभापश्वी के पूर्वीय-चरमान्त में मरणसमुद्घात करके शर्कराप्रभापथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त सक्ष्म पृथ्वी कायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? 631 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त) रत्नप्रभापृथ्वी-सम्बन्धी कथनानुसार यावत् 'इस कारण से ऐसा कहा है', यहाँ तक कहना चाहिए। 32. एवं एएणं कमेणं जाव पज्जत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु / [32] एवं इसी क्रम से यावत् पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्यन्त कहना चाहिए। 33. [1] अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए ण भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उवज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइ० पुच्छा। गोयमा ! दुसमहएण वा तिसमइएण वा विगहेण उवज्जिज्जा। [33-1 प्र. भगवन ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव शर्कराप्रभाषथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र के अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? (33-1 उ.] गौतम ! वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं० ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्तानो, तंजहा उज्जुयायता जाव अद्धचक्कवाला। एगतोवंकाए सेढोए उववज्जमाणे दुसभइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, दुहनोवकरए सेढोए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणठेणं० / 133-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते है कि वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [33-2 उ.) गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं / यथा--ऋज्वायता (से लेकर) यावत् अर्द्धचक्रवाल पर्यन्त / जो एकतोव का श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और जो उभयतोब का श्रेणी से उत्पन्न होता है वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / इस कारण से मैंने पूर्वोक्त बात कही है। 34. एवं पज्जत्तएसु वि बायरतेउकाइएसु / सेसं जहा रतणप्पभाए / [34 | इस प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक-रूप से (उत्पन्न होने योग्य का उपपात कहना चाहिए / ) शेष सब कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान कहना चाहिए / 35. जे वि बायरतेउकाइया अपज्जतगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते समोहया, समोहणित्ता दोच्चाए पुढवीए पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइएसु चउम्विहेसु, पाउकाइएसु चउन्बिहेसु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org