________________ बिइए एगिदियसए : तइओ उद्देसओ द्वितीय एकेन्द्रिय-शतक : तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रियजीवों के भेद-प्रभेद, कर्मप्रकृतियाँ, बंध और वेदन की प्ररूपरणा 1. कतिविधा णं भंते ! परंपरोक्वनगा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा परंपरोववनगा० एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया०, एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कानो भेदो जाब बणस्सतिकाइय ति। [1 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं / यथापृथ्वीकायिक इत्यादि / इस प्रकार इसी अभिलाप से (पृथ्वीकायादि प्रत्येक के) यावत् बनस्पतिकायिक-पर्यन्त चार-चार भेद कहने चाहिए। 2. परंपरोववन्नगकण्हलेस्सअपज्जत्तसुहमपुविकाइयाणं भंते ! कति कम्मम्पगडीओ पन्नत्तानो ? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव प्रोहियो परंपरोववन्नगउद्देसओ तहेव जाव वेदेति / // तेतीसइमे सए : बिइए एगिदियसए : तइयो उद्देसमो समत्तो // 33-2-3 // [2 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [2 उ.] गौतम ! औधिक परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार (कर्मप्रकृतियों से लेकर) यावत 'वेदते हैं तक समग्र कथन कहना चाहिए / विवेचन--निष्कर्ष कृष्णलेश्याविशिष्ट परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, कर्मप्रकृत्तियाँ, बन्ध और वेदन का समग्र कथन औधिक परम्परोपपन्नक के समान है। / तेतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : ततीय उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org