________________ बीइयाइ-अट्ठावीसइम-पज्जंता उद्देसगा द्वितीय से लेकर अट्ठाईसवें उद्देशक तक चतुविध क्षुद्रयुग्म-कृष्णलेश्यी नैरयिकों की उद्वर्तना-सम्बन्धी प्ररूपणा 1. कण्हलेस्सखुड्डाकडजुम्मनेरइया ? एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए (स० 31) अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उबट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियन्वा निरबसेसा, नवरं 'उम्वति' ति अभिलाखो भाणियन्वो / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / बत्तीसइमे सए : बीइयाइ-अट्ठावोसइम-पज्जंता उसगा समत्ता // 32-2-28 / / // बत्तीसइमं उन्बट्टणासयं समत्तं // 32 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से निकल कर (उद्वत्तित होकर) तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] इसी प्रकार उपपातशतक के अट्ठाईस उद्देशकों के समान उद्वर्तनाशतक के भी अट्ठाईस उद्देशक जानना चाहिए / विशेष यह है कि 'उत्पन्न होते हैं के स्थान पर 'उत्तित होते हैं कहना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। ___हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन---उत्पत्ति के समान उद्वर्तना के अट्ठाईस उद्देशक-इकतीसवें शतक में नारकों की उत्पत्ति की प्ररूपणा की थी, उसी प्रकार यहाँ उनकी उद्वर्तना अट्ठाईस उद्देशकों में क्रमश: कहनी चाहिए।' प्रथम उद्देशक में कहा गया है--'उज्वट्टणा जहा वक्कंतीए।' प्रज्ञापनासूत्र के व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार नैरयिकों की उद्वर्तना कहनी चाहिए / वहाँ संक्षेप में कहा गया है.--'नरगानो उम्वदा गम्मे पज्जत्त-संखजीवीसु' अर्थात् नरक से निकल कर जीव पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं ?' // बत्तीसरा शतक : दूसरे से लेकर मट्ठाईसवें उद्देशक तक सम्पूर्ण / // बत्तीसवाँ : उद्धर्तनाशतक समाप्त / / 1. वियाहपपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 3, पृ. 1113 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 951 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (पष्णवणासुत्तं) भा. 1, सू. 666-67. पृ. 178-79 (महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org