________________ तेत्तीसइमं सयं : बारस एगिदियसयाणि तेतीसवां शतक : बारह अवान्तर एकेन्द्रियशतक प्राथमिक * यह भगवतीसूत्र का तेतीसवाँ शतंक है। इसका नाम एकेन्द्रियशतक है। इस शतक के अन्तर्गत बारह अवान्तर शतके हैं। इसका एकेन्द्रियशतक नाम रखने का कारण यह है कि इसमें एकेन्द्रियों के समस्त भेद-प्रभेद तथा अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ-परम्परावगाढ, अनन्तराहारक-परम्पराहारक. अनन्तरपर्याप्तक-परम्परपर्याप्तक. चरम-अचरम इत्यादि विशेषणों से युक्त एकेन्द्रियजीव में कर्मप्रकृतियों की सत्ता, बन्ध, वेदन ग्रादि का विश्लेषण युक्तिपूर्वक किया गया है / * साथ ही इसके अन्य अवान्तरशतकों में कृष्णलेश्याविशिष्ट, नीललेश्याविशिष्ट, कापोतलेश्या विशिष्ट, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिकताविशिष्ट तथा भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक भेद-प्रभेद युक्त एकेन्द्रियों की कृष्ण-नीलादिलेश्याविशिष्ट तथा अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक आदि से युक्त कृष्णलेश्यादिविशिष्ट एकेन्द्रियजीवों की सांगोपांग प्ररूपणा की है। * इस प्रकार बारह एकेन्द्रिय अवान्तरशतकों में भिन्न-भिन्न पहलुओं से कर्मबन्धादि का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। यह सारा प्रतिपादन उन लोगों की आँखों को खोल देने वाला है, जो यह मानते हैं कि 'पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव (आत्मा) नहीं है / ये जड़ हैं / इनमें अव्यक्त चेतना होती है। सभी भावेन्द्रियाँ होती हैं, जिनसे इन्हें सुख-दुःख का वेदन होता है, जिनसे राग-द्वेष कषाय, लेश्या आदि का जत्था बढ़ता जाता है। इन्हें जड़ माना जाए तो इनके कर्मबन्धादि क्यों हों और क्यों ये जन्म-मरण करें ? बाहर से अपरिग्रही, अहिंसक, ब्रह्मचारी आदि दिखाई देने वाले एकेन्द्रिय जीवों में वर्तमान युग के विश्लेषण के अनुसार यह सिद्ध हो गया है कि ये परिग्रह, हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य आदि से मुक्त नहीं हैं। इनमें क्रोधादिकषाय, आहारादिसंज्ञा इत्यादि होते हैं। न तो ये सम्यक्त्वी होते हैं और न ही सम्याज्ञान से युक्त या हिंसादि से विरत होते हैं / यही प्ररूपणा शास्त्रकारों ने इस शतक में की है। 1. अन्तःप्रज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः, शारीरजः कर्म दोषः यान्ति स्थावरता नराः / -मनुस्मृति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org