________________ [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र [4 उ. गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक को उद्वर्तना के समान इनकी उद्वर्तना आदि जानना। 5. एवं जाव आहेसत्तमाए। [5] इसी प्रकार (शर्कराप्रभा के नैरयिक से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उद्वर्तना जानना / 6. एवं खुड्डातेयोग-खुड्डादावरजुम्मखुड्डाकलियोग०, नवरं परिमाणं जाणियव्वं / सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥बत्तीसइमे सए : पढमो उद्देसमो समतो॥३१-१॥ [6] इस प्रकार क्षुद्रश्योज, क्षुद्रद्वापरयुग्म और क्षुद्रकल्योज के विषय में भी जानना चाहिए / परन्तु इनका परिमाण पूर्ववत् अपना-अपना पृथक्-पृथक् कहना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // बसीसौं शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org