________________ {াগুয়ানি 5 उ.] गौतम ! उनके पाठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं। यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म। 6. एवं भाव प्रणंतरोषवानगबादरवणस्सइकायियाणं ति / [6] इसी प्रकार यावन् अनन्त रोपपनकबादरवनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानना। 7. अणंतरोववनगसुहमपुढविकायिया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीनो बंधति ? गोयमा! आउयवज्जास्रो सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति / [7 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [7 उ.] गौतम ! वे प्रायुकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं। 5. एवं जाव अणंतरोववन्नगवायरवणस्सहकायिय त्ति। [8] इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नकबादरवनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना / 6. अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविकायिया णं भंते ! कति कम्मप्पगडोश्रो वेति ? गोयमा ! चोइस कम्मपगडीओ वेदेति, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव पुरिसवेदवझं। [प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे (पूर्वोक्त) चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं। यथा-पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञानावरणीय यावत् पुरुषवेदवध्य (पुरुषवेदाबरण) वेदते हैं / 10. एवं जाव अणंतरोववन्नगवायरवणस्सतिकाइय ति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // तेत्तीसइमे सए : पढमे एगिदियसए : विइनो उद्देसनो समत्तो / / 33 / 1 / 2 // [10] इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नकबादरवनस्पतिकायिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में यत्किचित-प्रस्तुत उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक जीवों के पांच भेद तथा उनके प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद करके उनमें कर्मप्रकृतियों तथा उनके बन्ध और वेदन का निरूपण किया गया है। प्रथम उद्देशक से इस द्वितीय उद्देशक में यही अन्तर है कि वहां सामान्य एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में निरूपण है, जबकि इसमें अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों का है। प्रथम उद्देशक में पृथ्वी कायिकादि एकेन्द्रिय के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, यों चार-चार भेद किये हैं, जबकि यहाँ अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय में पर्याप्त और अपर्याप्त का अभाव होने से सिर्फ दो भेद किये हैं। ये सभी अपर्याप्त ही होते हैं / कर्मबन्ध आयुष्य को छोड़ कर सात प्रकृतियों का होता है। शेष सब प्ररूपण पूर्ववत् ही है / ' // तेतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 954 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3665 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org