________________ 528] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 112. अवेयगा जहा सम्मबिटो। [112] अवेदी जीवों का कथन सम्यग्दृष्टि के समान है / 113. सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा। [113] सकषायी यावत् लोभकषायी, सलेश्या के समान जानना / 114. अकसायी जहा सम्मट्टिी। [114] अकषायी जीव सम्यग्दृष्टि के समान जानना / 115. सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। [115] सयोगी यावत् काययोगी जीव सलेश्यी के समान है। 116. अजोगी जहा सम्मद्दिट्ठी। [196] अयोगी जीव सम्यग्दृष्टि के सदृश हैं / 117. सागारोवउत्ता प्रणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। [117] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव सलेश्यी जीवों के सदृश जानना / 118, एवं नेरतिया वि भाणियव्वा, नवरं नायन्वं जं अस्थि / [118] इसी प्रकार नरयिकों के विषय में कहना चाहिए, किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, वे कहने चाहिए। 116. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। [116] इसी प्रकार असुरकुमार (से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक के विषय में जानना चाहिए। 120. पुढविकाइया सव्वट्ठाणेसु वि मझिल्लेस दोसु बि समोसरणेसु भवसिद्धीया वि, प्रभवसिद्धीया वि। [12. पृथ्वीकायिक जीव सभी स्थानों में मध्य के दोनों समवसरणों (अक्रियावादी और अज्ञानवादी) में भवसिद्धिक भी होते हैं और प्रभवसिद्धिक भी होते हैं / 121. एवं जाव वणस्ततिकाइय ति। [121] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए / 122. बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदिया एवं चेव, नवरं सम्मत्ते, श्रोहिए नाणे, प्राभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, एएस चेव दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया, सेसं तं चेव / [122] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेष यह है कि सम्यक्त्व, प्रोधिक ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान, इनके मध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org